Tuesday, February 16, 2021

अन्याय और शोषण के विरुद्ध गरजती ग़ज़लें

अन्याय और शोषण के विरुद्ध गरजती ग़ज़ल

डा. ब्रह्मजीत गौतम

 हिंदी ग़ज़ल कारों के बीच द्विजेंद्र द्विज एक सम्मानित नाम है । अपने प्रथम गजल संग्रह जन-गण-मन के माध्यम से उन्होंने साहित्य जगत में अपनी एक ख़ास जगह और छवि बनाई है। कथ्य के आधार पर ग़ज़ल के परंपरागत मिज़ाज और सोच के दायरे से बाहर निकलकर उन्होंने आम आदमी की व्यथा, शोषण और दयनीयता को अपनी ग़ज़लों में अभिव्यक्ति का विषय बनाया है। देश और समाज तथा उसमें रहने वाले लोगों के प्रति उनकी  चिंता, बेचैनी और छटपटाहट लगभग प्रत्येक ग़ज़ल में देखी जा सकती है। पूरे संग्रह की छप्पन ग़ज़लों में शायद एक भी ग़ज़ल नहीं होगी जो हुस्न और इश्क की सुखनवरी के परंपरागत दायरे में क़ैद हो बल्कि कवि तो ईश्वर से यह प्रार्थना करता है कि वह उस में ऐसे विचार रोशन करें, जो उसकी शायरी को इस घेरे से आगे ले जा कर एक नई ऊँचाई दिला सकें:

 जो हुस्न और इश्क की वादी से जा सके आगे

 ख़याल ए शायरी को वह उठान दीजिएगा 

अपने देश में धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र तथा मंदिर-मस्जिद के नाम पर जो राजनीति चल रही है, उसे लेकर कवि बहुत व्याकुल है। उसकी इस व्याकुलता को इन शे'रों में देखा जा सकता है:


 जबान, ज़ात, या मज़हब जहाँ न टकराएँ

 हमें हुजूर वो हिंदुस्तान दीजिएगा ।


तुम्हारे ख़्वाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद हैं

हमारे ख़्वाब में तो सिर्फ रोटी दाल बसते हैं 


मुद्दतों से हम तो यारों एक भारतवर्ष हैं 

आप ही पंजाब या कश्मीर या तामिल रहे


संग्रह की गजलें कवि की जिस पीड़ा और विकलता की साक्ष्य बनी हैं,  वह शायद उनका भोगा हुआ यथार्थ हैं। कदाचित इसीलिए वे आख्यानपरक बिंबों से लेकर पर से लेकर आज की त्रासद स्थितियों से होते हुए आदमी के अंदर की आग को पन्नों पर उतार सके हैं:


कहीं हैं ख़ून के जोहड़ कहीं अम्बार लाशों के

समझ में यह नहीं आता ये किस मंजिल के रस्ते हैं 


घाट था  सबके फिर भी न जाने क्यों वहाँ

कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन चुन के नहलाए गए


जी-हुज़ूरी आज सफलता पाने का शॉर्टकट है। चाहे पदोन्नति प्राप्त करनी हो या कोई ख़िताब, इससे अच्छा कोई उपाय नहीं इसीलिए जगह-जगह कवि ने इस कला पर कटाक्ष किए हैं:


 हुनर तो था ही नहीं उनमें जी हुजूरी का

 इसीलिए तो ख़िताबों से दूर रखे गए 


क़दमों की धूल चाट के छूना था आसमान 

थे  हम भी बाहुनर मगर ऐसा हुनर न था


घेरे हुए  हुज़ूर को है जी हजूर भीड़

कैसे सुनेंगे प्रार्थना या फिर अज़ान साफ़


द्विजेंद्र द्विज की ग़ज़लों का स्थापत्य शब्दों में निहित है और उन्हें अपने शब्दों की ताक़त का पूरा एहसास है उनकी ग़ज़लों में शब्द एक विशेष ऊर्जा से संपन्न होकर आते हैं। शब्द चयन के प्रति उनकी सजगता और आस्था एक ऐसी ख़ूबी है, जिसके माध्यम से भी अपने मंतव्य को मर्म तक पहुँचा देते हैं।कदाचित इसी लिए  इसीलिए उनके अशआर प्रेरणा देते हैं, कहीं चेतावनी देते हैं तो कहीं तिलमिला देते हैं:


 मार खाता न अगर सांचे की 

 मोम आकार ही नहीं होता


न भूलो तुमने ये ऊँचाइयाँ भी हमसे छीनी हैं

हमारा क़द  नहीं लेते तो आज नहीं होते 


एक दिन तो मैं उड़ा ले जाऊंगी आखिर तुम्हें

खुद हवा पहचान थी काली घटाओं के खिलाफ 


यह तो खुदा के राम के बंदे हैं इनसे आप

पूजा घरों के टूटते गुंबद में पूछिए 


द्विजेन्द्र द्विज अपनी बात प्रतीकों के माध्यम से कहना पसंद करते हैं। उनके प्रतीक कथ्य को दुरूह और क्लिष्ट बनाने के लिए नहीं,  बल्कि उसे अधिक बोधगम्य और प्रभावशाली बनाने के लिए होते हैं ।’अँधेरे’  ’उजाले’ उनके प्रतीक हैं। इन प्रतीकों का प्रयोग उन्होंने प्राय:  आम आदमी की जिंदगी से जुड़े हुए दुख- सुख  या कष्टों-सुविधाओं के लिए किया है। कभी-कभी वे इनके स्थान पर इनके पर्यायवाची या इन्हीं का आशय  रखने वाले ’तम’ ’रोशनी’ ’सूरज’ ’मशाल’ इत्यादि शब्दों का प्रयोग भी  कर लेते हैं।  उनके अन्य प्रतीकों में ’बौने’ ’बरगद’ ’पर’ ’आसमान’ ’परिंदे’ ’कांटे’ ’धुआं’ ’हवा’ ’खोटे सिक्के’ ’नदी’ ’समुंदर’ ’मछलियाँ’ ’कछुआ’ ’खरगोश’ आदि हैं । कहीं-कहीं उन्होंने ’कहकहा’, ’संत्रास’, ’मधुमास’,’पतझड़’, जैसे अमूर्त प्रतीकों का प्रयोग भी किया है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रतीकों के प्रयोग से उनकी अभिव्यक्ति में लाघव और पैनापन  आया है।


 गजल की बात चले और बह्र की चर्चा न हो तो यह बात अधूरी- सी रहेगी। कवि ने इस भ्रम को छोड़ दिया है कि हिंदी में जो गजलें कही जा रही हैं उनमें बहर प्राय: खारिज होती है।  जन-गण-मन की ग़ज़लें बहर की कसौटी पर भी खरी  और निर्दोष हैं ।  कवि ने यद्यपि गिनी चुनी बहरें ही अपनाई हैं लेकिन वे यह एहसास कराने में समर्थ हैं कि कवि को बह्र और अरूज़ के अनुशासन की पूरी समझ है । जन गण मन  की ग़ज़लें पढ़कर कुछ आलोचक यह आरोप लगा सकते हैं कि ये सपाट बयानी की शिकार हैं लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि इन ग़ज़लों का विषय महबूबा के साथ गुफ़्तगू नहीं, अपितु ज़िंदगी की बेरहम सच्चाइयों का बयान करना है। कवि ने ग़ज़ल को मख़मली आरामगाह से बाहर निकालकर यथार्थ की खुरदरी ज़मीन से रूबरू कराया है।  ऐसे में उनके पास कल्पना के घोड़े दौड़ाने का अवसर नहीं था। कबीर जैसी सीधी और खरी बात कहने के लिए भाषा भी कबीर जैसी ही होनी चाहिए और वैसे ही भाषा शैली कवि ने अपनाई है।  विश्वास है कि यह संग्रह उन्हें  अवश्य ही प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि देगा।

डा. ब्रह्मजीत गौतम

साभार: गोलकोंडा दर्पण ,जनवरी 2006  हैदराबाद

Monday, February 15, 2021

अपने आप को आईना दिखाती गजलें

 


 अपने आप को आईना दिखाती गजलें 


हृदयेश  मयंक


  निरंतर लयहीन  होते हुए जीवनानुभवों को शब्दों में बांधना आज के दौर में निहायत कठिन हो गया है। ऐसे में यदि कुछ लोग छान्दस अभिव्यक्तियाँ  करने में सक्षम है तो उन्हें बधाई दी जानी चाहिए । यदा-कदा हिंदी की लघु पत्रिकाओं में जब गीत नवगीत देखने पढ़ने को मिल जाता है तो बहुत अच्छा लगता है। हाँ इन दिनों ग़ज़लें बहुतायत में पढ़ने को मिलती हैं । अधिकांश कवि शायर एकरसता में ग़ज़लें लिखने का प्रयास करते हैं। प्राय: पढ़ते हुए लगता है कि इस तरह के शेर पहले पढ़े हुए हैं । छंद विधान या मीटर भले ही अलग हो पर कथ्य बहु प्रचलित दिखाई पड़ते हैं । ऐसे में यदि कोई अलग कथ्य,  अलग मिज़ाज और अलग ज़मीन लिए हुए दिखाई पड़ता है तब वह  अनायास ही पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है।  द्विजेंद्र द्विज एक ऐसा ही चर्चित नाम है जो हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में अपना एक अलग पाठक वर्ग तैयार किए हुए है। 


 हाल ही में द्विजेंद्र द्विज की छप्पन जन-गण-मन  में पढ़ने को मिलीं। ग़ज़ल लेखन में रुचि होने की वजह से एक बार बारगी सारी ग़ज़लें पढ़ गया। इन गजलों के बीच से गुज़रते हुए एक नये तरह के अनुभवों से साक्षात्कार हुआ । ये अनुभव एक अँग्रेज़ी के प्राध्यापक के ही नहीं है वरन लाखों-करोड़ों शोषित पीड़ित उस जनमन के हैं जिनके सपने उदास होकर टूट चुके हैं,  आँखें सहमी हैं। वे सभी भौचक हैं कि यह क्या हो रहा है। समाज में जो कुछ घटित हो रहा है वह कल्पनातीत है।  देखते ही देखते यह क्या से क्या हो गया है । सब कुछ हासिल कर लेने का एक पागलपन आज के युवा वर्ग में दिखलाई पड़ता है। मध्यवर्ग आज़ादी के बाद के छलावों से अभी  उबर भी नहीं पाया था कि नये उदारीकरण व बाज़ारवाद ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा, कवि ने इस पीड़ा को एक जीवंत स्वर दिया है: 


सूरज डूबा है आँखों  में आज है फिर सँवलाई शाम 

 सन्नाटे के शोर में सहमी बैठी है पथराई शाम 


साया साया बाँट रहा है दहशत घर-घर बस्ती में

सहमी  आँखें टूटे सपने और एक पगलाई शाम(पृष्ठ-54)

 इन ग़ज़लों में एक ओर जहाँ पहाड़ का सौंदर्य है वहीं उसकी बेज़ुबानी भी बयां होती है । प्राकृतिक संपदा के दोहन और उसकी ओर  अनदेखी करने वाली व्यवस्था के प्रति कवि का आक्रोश दिखलाई पड़ता है । पर्यावरण की दुहाई के बावजूद प्राकृतिक स्थलों , नदियों , झीलों के आसपास कचरा प्लास्टिक थैलियों का उपहार पर्यटक धड़ल्ले से छोड़ते नजर आते हैं । विषय सड़कों के निर्माण का हो या फिर नये भवनों के निर्माण का, शहर सदैव पहाड़ों की ओर ही बढ़ते हैं । उन्हें काटना शहरी विकास की पहचान बन गई है। कवि मानो  इस प्रवृत्ति पर अपना आक्रोश इस तरह  व्यक्त करता है :

न भूलो तुमने ये ऊँचाइयाँ भी हमसे छीनी हैं 

हमारा कद नहीं लेते तो आदम क़द नहीं होते(पृष्ठ-2)

 इतिहास साक्षी है कि जब जब राजनीति दिशाहीन होती रही है तब-तब कवियों, लेखकों , कलमकारों ने राजनीति और समाज दोनों को दिशा देने का काम किया है । भले ही सदैव  सत्ता व व्यवस्था की नजरों में तिरस्कृत रहे  हों। आपातकाल का ख़ामियाज़ा कलमकारों ने जमकर भोगा था।  फिर भी  हम हैं तो हैं । बक़ौल द्विजेंद्र द्विज :

बंद कमरों के लिए ताजा हवा लिखते हैं हम

खिड़कियाँ हों  हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम (पृष्ठ-3)

उपभोक्तावाद ने एक नई तरह की दलाल संस्कृति को जन्म दिया है।  जिस वर्ग को देखो वही चाटुकारिता, मक्कारी व दलाली में लिप्त दिखाई पड़ता है । झूठ और फ़रेब की एक नई दुनिया रच दी गई है।  अनेक प्रलोभन आए दिन परोसे जा रहे हैं एक नया वर्ग रातों-रात अपनी अलग पहचान बना रहा है।  उसी की नकल में सारे लोग व्यस्त हैं।  वर्गीय चेतना लुप्त हो गई है परिणामत: आंदोलनकारी ताक़तें कमज़ोर हो गई हैं । सरकारी स्तर पर विकास का  लॉलीपॉप दिखाया जा रहा है।  मीडिया यक़ीन दिलाने में व्यस्त है।  सच यह है कि सारी सुविधाएं राज महल की ओर जा रही हैं। पगडंडियों मानचित्र से    ग़ायब हो रही हैं।  एक सन्नाटा चारों और पसरा हुआ है आक्रोश करीब करीब ग़ायब  है ।  शायर कहता है :


तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को 

अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता ?(पृष्ठ- 4) 

द्विजेंद्र के यहां कुछ अलग, बिल्कुल अलग अभिव्यक्तियाँ हैं। एक दिलासा भी है कि जिन लोगों ने संघर्ष  द्वारा कुछ हासिल किया है वे उजालों के बरक्स अँधेरों का साथ नहीं देंगे। काश ऐसा हो पाता। समाज में रातों-रात पनपे  दोग़ले नवधनिकों ने नैतिकता के सारे मानदंडों को ताक पर रख दिया है। झूठ और लूट की बुनियाद पर विकास की जो इबारत लिखी जा रही है वह फ़रेब के सिवा कुछ भी नहीं ।

 पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था एक नई गुलामी की ओर अग्रसर है। चंद लफ़्ज़ , चंद आक्रोश के स्वर चंद अशआर हमारी भावना हो सकते हैं पर यह  पर्याप्त नहीं है साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए। फिर भी द्विजेंद्र को दाद दी जानी चाहिए इस तरह के शेरों के लिए:


 अँधेरे बाँटना तो आपकी फितरत में शामिल है

 उजालों का हमारे गीत में उल्लास लिक्खा  है (पृष्ठ-9)

 द्विजेंद्र के यहाँ सिर्फ़ आँखों  देखा या कानो सुना नहीं है। वह नये जतन की भी बात करते हैं। व्यवस्था में बदलाव तभी संभव है जब एकजुट होकर संयुक्त प्रयास किए जाएं। द्विजेंद्र का यह शे'र उनके इसी ख़याल  द्योतक है:

जब धुआं सांस की चौखट पर ठहर जाता है 

तब हवाओं को बुलाने का जतन होता है (पृष्ठ-13)

सवाल ज़िन्दगी के टालना नहीं अच्छा 

दो टूक बात करो फैसलों की भाषा में(पृष्ठ-14)

 द्विजेंद्र राजनीति के गलियारों की भी खोज खबर लेते हैं ।  झूठे आश्वासनों,  भाई भतीजावाद , जाति और मज़हबों पर आधारित राजनीति की चुटकी कुछ इस तरह से लेते हैं ;

वो आ गया है हमें अब तसल्लियाँ देगा

हमारा आग में जलता मकाँ नहीं देखा (पृष्ठ-19)

आज के इस दौर में जहाँ कुछ भी बेचा खरीदा जा सकता है,  कलमें भी आसानी से बेची व ख़रीदी जा रही हैं । समाज के अन्य वर्गों की तरह यह वर्ग भी सत्तामुखी हो गया है । तमाम पुरस्कार व राजकीय सम्मानों की बन्दरबाँट हो रही है, ऐसे में ईमानदार लेखक उस  सामान्य जन की तरह है  जो तमाम सुविधाओं से वंचित व समय की चकाचौंध में अपने आप को  छलित मान रहा है। कवि द्विज इन उपेक्षितों  की तरफ़ से ठीक ही तो कह रहे हैं :

सर झुकाया, बंदगी की, देवता माना जिन्हें ,

वे रहे अक्सर हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़ (पृष्ठ-27)

आश्वासन भूख बेकारी घुटन धोखाधड़ी 

हां यही सब तो दिया है आप के विश्वास ने (पृष्ठ 28)

कुल मिलाकर यह गजलें  हमें हमारे समय से रूबरू कराती हैं । आईने की तरह हमें हमारा ही चेहरा दिखाती हैं । हिंदी और उर्दू ग़ज़लों को कुछ लोग बांट कर अलग-अलग देखना चाहते हैं।  हमें समझ में नहीं आता कि वह वास्तव में क्या चाहते हैं। गीत व कविता की समृद्ध परंपरा में ग़ज़लें नए फूलों की तरह ऐसे ही नहीं उग आई हैं। उन्हें बड़े जतन से उगाया गया है। खून और पसीने से सींचा जा रहा है। इन  ख़ूबसूरत अभिव्यक्तियों के लिए रचनाकारों को साधुवाद दिया जाना चाहिए न कि हिंदी व उर्दू को अलग-अलग बाँटकर देखने वाली राजनीति के सांप्रदायिक रुझान को स्वर दिया जाना चाहिए। यह न तो यह कविता के लिए अच्छा है और न ही हमारे समय के  लिए । यह समय वैसे भी इतने खेमों में विभाजित है,  इतनी दीवारें पहले ही खड़ी कर दी गई हैं,  जिन्हें तोड़ना लगभग नामुमकिन सा दिखलाई पड़ता है।  द्विजेंद्र द्विज जैसे कवि हिंदी और उर्दू के बीच सेतु का काम कर रहे हैं यह सुकून की बात है।

 समीक्षक:    हृदयेश  मयंक , सम्पादक : चिन्तन दिशा मुंबई

साभार: हिमाचल मित्र /आस्वाद और परख /शरद अंक द्वैमासिक अक्टूबर- 2007/ मार्च-2008

Saturday, February 13, 2021

यही सड़क तो घर और आसमां छत है

यही सड़क तो घर और आसमां छत है 

  आज के दौर में ग़ज़ल की बढ़ती लोकप्रियता ने हिन्दी कवियों को भी ग़ज़ल लेखन की ओर आकर्षित किया है, मगर हिन्दी में ग़ज़ल नाम से आजकल जो कुछ लिखा जा रहा है, उसे देख कर लग रहा है, जैसे हिन्दी ग़ज़ल का भविष्य बहुत अंधकारमय है, लेकिन द्विजेंद्र द्विज की ग़ज़लें इस तथ्य को झुठलाती हैं। द्विज वर्तमान पीढ़ी के एक ऐसे होनहार ग़ज़लकार हैं जिन्होंने ग़ज़ल के छंद शास्त्र को आत्मसात करने की साधना की है । इनकी ग़ज़लें ग़ज़ल की अवधारणा के अनुरूप भाषिक एवं साहित्यिक संस्कृति का निर्माण करती हैं। तलफ़्फ़ुज़ की जानकारी सही लफ्ज़ को को सही तरीके से इस्तेमाल करने की तमीज़ जन- गण -मन की ग़ज़लों की एक बेजोड़ ख़ासियत कही जा सकती है ।

 यहाँ यह बताना बेहद ज़रूरी लगता है कि उर्दू ग़ज़ल की समृद्ध परंपरा के परिपेक्ष्य में हिंदी में लिखी जा रही ग़ज़लों को उन उर्दू ग़ज़लों के साथ रखकर अगर देखा जाएगा तो हिंदी में ग़ज़ल की पहचान का संकट पैदा हो जाएगा। हिंदी में एक सफल गजलकार दुष्यंत कुमार हुए हैं, कुछ और दुष्यंत अभी पैदा होने बाकी हैं । हिंदी ग़ज़ल के पास एक विलक्षण समकालीन बोध है लेकिन शिल्प के लिए उर्दू की विरासत के साथ जुड़ना बाकी है। हिंदी के रचनाकारों के पास जागरूकता है, लगन है और उत्साह भी है। अतः इस आधार पर कहा जा सकता है की हिंदी ग़ज़ल का आने वाला कल काफी चमकदार और असरदार होगा इसमें कोई संदेह या सुलह नहीं । हिंदी गजल लेखन में अपनी पुख़्ता पहचान बनाने वाले हिमाचल के युवा कवि द्विजेंद्र द्विज का ग़ज़ल संग्रह जन- गण -मन मेरे हाथों में है । नए अंदाज में नए चिंतन का एक अद्वितीय दस्तावेज़ जहाँ विचार शैली में नई सोच के प्रमाण हैं, यथार्थ के आभास हैं और से और जिस में लेखकीय चुनौतियों को स्वीकारती हुई सामाजिक संपूर्णता की उपस्थितियाँ भी दर्ज है। कवि को पढ़ने के बाद ऐसा कुछ महसूस हुआ, मानो गजलकार ने जीवन में जो कुछ जिया है और जिसे उसने स्वयं भोगा है, उसे उसने पूरी ईमानदारी के साथ अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। उनके लेखन में सर्वत्र सहजता और स्वाभाविकता विद्यमान है । जन-गण-मन  सामान्यता इस तरह के नाम ग़ज़लों की पुस्तकों के नहीं होते मगर ग़ौर से देखें तो इस शीर्षक से बीज की गजलों के कथ्य और उनमें व्यक्त व्यथा और वेदना को समझा जा सकता है । द्विज की ग़ज़लियात अनेक पत्र-पत्रिकाओं में अभी भी दिखाई देती हैं और कवि सम्मेलनों व मुशायरों में अक्सर सुनाई पड़ती हैं और अब जन-गण-मन की मार्फ़त पाठक से रूबरू हैं। इन ग़ज़लों को पढ़ने से लगता है कि इनमें पारंपरिकता का रंग भी है और नयेपन की ख़ुशबू भी इनमें मौजूद है। पुस्तक में संकलित गजलों का कैनवास बहुत व्यापक है । एक अभिव्यक्ति अथवा एक बिंब से लेखक समूचे देश और काल की बात कर जाता है । बेशक बड़े सादा और सरल शब्दों में मगर एक निहायत ही ख़ूबसूरत और शानदार अंदाज के साथ: 

  तहजीब यह नई है इसको सलाम कहिए 
रावण जो सामने हो उसको भी राम कहिए
 
बदबू हो तेज़ फिर भी कहिये उसे न बदबू 
  अब हो गया है शायद हमको जुकाम कहिए 

  द्विज सद्र बज़्म के हैं वो जो कहें सो बेहतर
 बासी ग़ज़ल को उनकी ताजा कलाम कहिए (पृष्ठ 23)

जन- गण -मन की गजलों की एक अहम ख़ासियत यह भी है कि वह समय के सच के साथ साक्षात्कार करवाती हैं , आदमी को आदमियत का वास्ता वास्ता दिलवाती हैं और इंसानी जज़्बात का अहसास करवाती हैं: आईना खुद को समझते हैं बहुत लोग यहां आईना कौन है द्विज उनको दिखाने वाला इसके अलावा द्विज के ग़ज़ल संसार में आम आदमी का दिल भी धड़कता हुआ महसूस किया जा सकता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज नहीं तो कल साहित्य में इन ग़ज़लों की मूल्यवत्ता को अवश्य पहचाना जाएगा । इनकी सराहना होगी और इन ग़ज़लों पर सार्थक सार्थक चर्चाएँ भी होंगी। द्विज की ग़ज़ल रचना कहीं थमी नहीं, रुकी नहीं, थकी नहीं और अभी भी पूरी मुस्तैदी के साथ, पूरी संजीदगी और बुलंद हौसलों के साथ अपनी राह पर गामज़न है। अपनी ग़ज़ल में द्विज के पास अपने ख़ास जनवादी तेवर भी हैं, जो पाठक के दिल में उतर कर भारी हलचल पैदा करते हैं और वहां एक स्थाई असर छोड़ते हैं और वहाँ एक स्थायी असर छोड़ते हैं। , एक बानगी देखिए: 

  चलो फिर आज भी फ़ाक़े उबाल लेते हैं 
 अभी भी देर है फसलें बाहर आने में

 यही सड़क तो है घर और आसमां छत है 
 मिलेगा और भला क्या ग़रीबख़ाने में ( पृष्ठ 67) 

प्रस्तुत संग्रह को निश्चय ही इसलिए पठनीय और संग्रहणीय माना जा सकता है कि इस में संकलित ग़ज़लों के भीतर अनुभव की सच्चाई के साथ साथ, कल्पना के सूक्ष्म तंतुओं की ख़ूबसूरत बनावट भी मौजूद है । इन में सामाजिक यथार्थ का का चित्रण है और राजनीतिक व्यंग्य के तेज़ धारदार नश्तर भी हैं। ऐसी ही अपनी दूसरी ग़ज़लों में भी द्विज ने आम आदमी के दर्द को बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया है । उनकी व्यथाओं और वेदनाओं को पहचाना है और यथार्थ के धरातल पर उन्हें बड़ी संजीदगी के साथ समझने का प्रयास किया है। शायद यही वजह है कि उक्त संकलन की अधिकांश गजलें व्यक्ति के अंतस को उद्वेलित करती हैं। युगीन संदर्भों, सामाजिक विसंगतियों और माननीय विद्रूपताओं का इनमें यथार्थ चित्रण हुआ है। आम आदमी के संघर्ष और आक्रोश की पैरवी करते हुए द्विज कहते हैं: 

  जिन परिंदों के परों को कुंद कर डाला गया 
 जी रहे हैं टीस लेकर आज भी निवास की (पृष्ठ 37)

संकलन की इन गजलों में मानवीय संवेदना भावनाओं और विचारों को जिस बारीकी और काव्यगत कौशल के साथ अभिव्यक्त किया गया है निश्चय ही अतुलनीय है। वर्तमान सामाजिक विसंगतियों और मानवीय पीड़ाओं की टीस की अभिव्यक्ति ग़ज़लों को बेहद संवेदनशील और भावुकता युक्त बना देती है: 

 कहीं है खून के जोहड़ कहीं अंबार लाशों के
 समझ अब यह नहीं आता ये किस मंजिल के रास्ते हैं (पृष्ठ 24) 

 द्विज के इस ग़ज़ल संग्रह की कुछ ग़ज़लें हिमाचल के पहाड़ों के दर्द से भी वाबस्ता हैं। इन गजलों में पर्वत के जीवन की पीड़ाओं के बयान की मौजूदगी में कवि स्वयं भी उस पीड़ा को असंपृक्त नहीं है। पहाड़ के उस दर्द को वह ग़ज़ल के शिल्प में डालकर बयान करता है। कुल मिलाकर इन ग़ज़लों में मानवीय जीवन के विघटनकारी संदर्भों की व्याख्या है। आदमी की बेबसी, मजबूरी और घुटन का सपाट और बेबाक चित्रण है। संग्रह की लगभग सभी ग़ज़लें अंतस को उद्वेलित करती हैं। कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से द्विजेंद्र द्विज को एक श्रेष्ठ ग़ज़ल कार होने का हक़ हासिल है। हिंदी में ग़ज़ल उर्दू से और उर्दू में अरबी उत्स से निकल कर फारसी माध्यम से आई । ग़ज़ल के व्याकरण के मुताबिक द्विज की बह्रों पर पुख्ता पकड़ है , उन्हें नुक्ता की पहचान है वज़्न पर उसकी पकड़ है और शे'र में शेरियत पैदा करने की उसे महारत हासिल है । भाषिक संरचना के नज़रिए से द्विज के पास ग़ज़ल के लिए ऐसे अनेक शब्द है जिन्हें दूसरे कई ग़ज़लकार अमूमन अपनी ग़ज़ल में लाने से परहेज करते हैं जैसे उजाला, तम, शूल , सरोवर और शरण इत्यादि। उर्दू की कठिन शब्दावली कहीं-कहीं कुछ उलझन पैदा ज़रूर कर देती है लेकिन फ़ुटनोट्स में उनके अर्थ दे दिए गए हैं जिनसे अर्थ समझने में पैदा हुई रुकावट दूर हो जाती है । निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि जन-गण-मन एक अच्छी ग़ज़लकार का अच्छा ग़ज़ल संग्रह है अतः पठनीय है , संग्रहणीय है । भविष्य के लिए यह संग्रह आश्वस्त करता है यह ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में द्विज आने वाले वक़्त में यक़ीनन अपने लिए एक बढ़िया, उम्दा और शानदार मुकाम हासिल कर लेंगे।

  प्रो. चतुर सिंह अंबिका निवास हरिपुर मोहल्ला, नाहन (हिमाचल प्रदेश) 

  साभार: प्रतिबिम्ब: दैनिक दिव्य हिमाचल 1 जुलाई 2004

Monday, August 22, 2016

जन-गण-मन पर नवनीत शर्मा: बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा


द्विजेंद्र द्विज के 'जन- गण -मन' से गुज़रना ऐसे अहसास से गुज़रना है जो रोज किसी भी व्‍यक्ति में बीत रहा होता है। हर अहसास को ग़ज़ल के हवाले करना और उसे बहुत शिद्दत के साथ निभाना द्विज के गज़ल़कार की पहली पहचान है। वह जितनी भाव और संवेदना से पगी ग़ज़लें कहते हैं, उतना ही सधा हुआ उनका शिल्‍प होता है।

 जन-गण-मन की ग़ज़लें मनोरंजन नहीं करतीं, आईना दिखाती हैं। मैं जब आईना कह रहा हूं तो इसका अर्थ शीशा नहीं है। ये ग़ज़लें कुरेदती हैं, अपने हिस्‍से के दाने मांगती हैं, जंगलों की भाषा में कटने वालों का चंबलों की भाषा में उगना दर्ज करती हैं, फैसलों की भाषा की मांग करती हैं। दरअस्‍ल द्विज का मुहावरा जन से उठता है और जन की फेरी लगा कर अपने साथ कई कुछ ऐसा ले आता है जो जन को समर्पित हो जाता है।

 जन- गण- मन  की ग़ज़लों का मुहावरा किसी पुराने मील पत्‍थर पर नई स्‍याही का मुहावरा नहीं है, यह नए मील पत्‍थर का मुहावरा है जहां जिंदगी कमी़ज के उस टूटे हुए बटन के तौर पर दर्ज हो जाती है जिसे टांकने में उंगलियां
बिंधती हैं।


हिंदी ग़ज़ल के साथ एक विडंबना रही है कि उसे हिंदी संसार में दुष्‍यंत की ग़ज़लों के आलोक में देखा गया है और उर्दू वालों के लिए यह कोई विधा ही नहीं है। यह बहस पुरातन है और चल रही है लेकिन जन- गण- मन की ग़ज़लें इस संदर्भ में भी वह पुल हैं जिस पर दोनों पक्ष दूर नहीं हैं, शर्त यह है कि इस पुल पर चलने वाला जानबूझ कर लंगड़ा कर न चले। ग़ज़ल की यह चारित्रिक विशेषता है कि उसका हर शे'र स्‍वच्‍छंद हो सकता है, मुक्‍त हो सकता है। द्विज के यहां खूबी यह है कि हर शे'र से द्विज की जन के लिए प्रतिबद्धता झलकती है। यह प्रतिबद्धता यूं ही नहीं आती, इसके लिए अपनी सोच के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ता है।


जन- गण- मन की ग़ज़लों में विषयानुगत साम्‍य उसकी खूबी बन कर उभरा है। वहां दर्द है, टीस है, हालात-ए-‍हाजि़रा पर तंज़ है, कहीं भावुकता है लेकिन द्विज का शायर घर से जब चलता है तो जानता है कि सफर में हर जगह सुंदर घने बरगद नहीं होते। चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझने का यह जो जज्‍बा है वही जन- गण- मन की ताकत है। जब भी बंद कमरों में ताज़ा हवा का इंतज़ाम करना हो, छान फटक, निर्मम पोंछा, ईमानदारी के साथ झाड़ू पहली शर्त होते हैं, और वे तमाम औजार इन ग़ज़लों में मिलते हैं। द्विज का पहाड़ से लेकर समंदर तक होना और बादलों में घिरना केवल अभिधात्‍मक नहीं है, यहां लक्षणा और व्‍यंजना का जादू भी चमत्‍कृत करता है। वक्रोक्ति के तीखे और नुकीले नश्‍तर भी इन गज़लों में पूरी धार के साथ हैं :


देख, ऐसे सवाल रहने दे
बेघरों का ख़याल रहने दे

तेरी उनकी बराबरी कैसी
तू उन्हें तंग हाल रहने दे

भूल जाएँ न तेरे बिन जीना
बस्तियों में वबाल रहने दे

ये नश्‍तर जन-गण-मन की ग़ज़लों की धार को तय करते हैं। यह और बात है कि अब भी ग़ज़ल का एक मुआशरा परंपरागत शैली को ढो रहा है और जन की बात करने वाली ग़ज़लों को बकौल द्विज :

' जन-गण-मन के संवादों के संकट से जो लड़ती हैं
उन ग़ज़लों को कुछ लोगों ने पागल शोर बताया है'

बताते हैं लेकिन सच यह है कि जन- गण -मन का सृजक खुली हवा के इंतज़ाम का पक्षधर है, काई को हटाने का मुरीद है, वह नहीं चाहता कि सीलन घर करे:

बंद कमरो के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियां हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम



- नवनीत शर्मा

(युवा ग़ज़लकार, कवि। एक काव्‍य संग्रह 'ढूंढ़ना मुझे' प्रकाशित। ग़ज़ल
संग्रह प्रकाशनाधीन। संप्रति दैनिक जागरण में वरीय समाचार संपादक)

Friday, August 19, 2016

101 किताबें शायरी की ...में 'जन-गण-मन' पर प्रख्यात ग़ज़लकार व समीक्षक श्री नीरज गोस्वामी का आलेख


101 किताबें शायरी की ...में 'जन-गण-मन' पर प्रख्यात ग़ज़लकार व समीक्षक श्री नीरज गोस्वामी



भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार...ये शब्द आजकल हर तरफ गूँज रहा है...सदियों से सहते आ रहे भ्रष्टाचार से अचानक लोग मुक्ति पाने के लिए तड़प रहे हैं...नारे लगा रहे हैं, अनशन कर रहे हैं, मुठ्ठियाँ हवा में लहरा रहे हैं...और भ्रष्टाचार है के वहीँ का वहीँ अपनी मजबूत स्तिथि का फायदा उठाते हुए मंद मंद मुस्कुरा रहा है. क्यूँ? जवाब के लिए मुंबई से प्रकाशित साहित्य पत्रिका "कथा बिम्ब" के ताज़ा अंक में "श्री घनश्याम अग्रवाल" जी की ये कविता पढ़ें:
"बेताल के सवाल पर 
विक्रम से लेकर अन्ना तक 
सभी मौन हैं
कि जब सारा देश
भ्रष्टाचार के खिलाफ है 
तब साला भ्रष्टाचार करता कौन है?"
सीधी सी बात है भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले हम लोग ही भ्रष्टाचार को फ़ैलाने में सहयोग देते हैं.इसी बात को उस शायर ने जिसकी किताब का जिक्र हम करने जा रहे हैं किस खूबसूरत अंदाज़ में कहा है पढ़िए :
ये चाँद ख़ुद भी तो सूरज के दम से काइम हैं 
ये ख़ुद के बल पे कभी चांदनी नहीं देते
गज़ब के तेवर लिए इस छोटी सी प्यारी सी शायरी की किताब " जन गण मन " के लेखक हैं ब्लॉग जगत के अति प्रिय, स्थापित युवा शायर जनाब "द्विजेन्द्र द्विज" साहब. द्विजेन्द्र जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं ,ब्लॉग जगत के ग़ज़ल प्रेमी इस नाम से बखूबी परिचित हैं. ब्लॉग पर उनकी सक्रियता अधिक नहीं रहती लेकिन वो जब भी अपनी ग़ज़लों से रूबरू होने का मौका देते हैं अपने पाठकों को चौंका देते हैं.
अँधेरे चंद लोगों का अगर मकसद नहीं होते 
यहां के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

फरेबों की कहानी है तुम्हारे मापदंडों में
          वगरना हर जगह 'बौने' कभी 'अंगद' नहीं होते

चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा 
सफ़र में हर जगह सुन्दर घने बरगद नहीं होते
बौनों के अंगद होने की बात कहने वाला शायर किस कोटि का होगा ये पता लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है. ऐसी सोच और ऐसे अशआर यक़ीनन शायर के अन्दर धड़कते गुस्से के लावे को बाहर लाते हैं. द्विज जी की बेहतरीन ग़ज़लें रिवायती ग़ज़लों की श्रेणी में नहीं आतीं, उनकी ग़ज़लों में महबूबा के हुस्न और उसकी अदाओं में घिरे इंसान का चित्रण नहीं है उनकी ग़ज़लों में आम इंसान की हताशा, दुखी जन के प्रति संवेदनाएं और समाज के सड़े गले नियमों के खिलाफ गुस्सा झलकता है. द्विज जी अपनी ग़ज़लों से आपको झकझोर कर जगाते हैं:
अगर इस देश में ही देश के दुश्मन नहीं होते
           लुटेरा ले के बाहर से कभी लश्कर नहीं आता
जो खुद को बेचने की फितरतें हावी नहीं होतीं
हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता
अगर जुल्मों से लड़ने की कोई कोशिश रही होती 
हमारे दर पे जुल्मों का कोई मंज़र नहीं आता
10 अक्तूबर,1962. को जन्में द्विज जी, बेहतरीन ग़ज़ल कहने की उस पारिवारिक परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं जिसकी नींव उनके स्वर्गीय पिता श्री "सागर पालमपुरी" जी ने डाली थी. श्री ‘सागर पालमपुरी’ जी का नाम आज भी हिमाचल के साहित्यिक हलकों बहुत आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है. कालेज के दिनों से ही वो अपने पिता के सानिध्य में ऐसी ग़ज़लें कहने लगे जिसे सुन कर उस्ताद शायर भी दंग हो जाया करते थे. तारीफों की हवा से अक्सर इंसान गुब्बारे की तरह अपनी ज़मीन को छोड़ कर ऊपर उड़ने लगते हैं और एक दिन अचानक धरातल पर आ गिरते हैं, लेकिन द्विज जी के साथ ऐसा नहीं हुआ. प्रशंसा की सीढियों से उन्होंने नयी ऊँचाइयाँ छूने की कोशिशें की:
कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में 
उगे हैं फिर वही तो चम्बलों की भाषा में
सवाल ज़िन्दगी के टालना नहीं अच्छा 
दो टूक बात करो, फ़ैसलों की भाषा में 
फ़रिश्ता है कहीं अब भी जो बात करता है 
कड़कती धूप तले, पीपलों की भाषा में
           हज़ार दर्द सहो, लाख सख्तियां झेलो
         भरो न आह मगर, घायलों की भाषा में

द्विज जी चूँकि हिमाचल से हैं इसलिए उनकी ग़ज़लों में पहाड़ नदियाँ बादल झरने रूमानी अंदाज़ में नहीं बल्कि ज़िन्दगी की हकीकत बन कर कर उभरे हैं. इस संग्रह की संक्षिप्त सी भूमिका में मशहूर ग़ज़ल कार जनाब 'ज़हीर कुरैशी' जी ने क्या खूब लिखा है के " द्विज जी की ग़ज़लों में व्यक्त उनका पहाड़ हिमाचल तक सीमित नहीं है. जाति मज़हब रंग नस्लों और फिरकापरस्ती की सियासत के खिलाफ भी उनका ग़ज़लकार तन कर खड़ा है. पहाड़ की कठिन ज़िन्दगी में खून-पसीने से सींचे गए खेतों की उपज का बंटवारा ठीक-ठाक होने की चेतावनी भी उनके शेरों में है." आप खुद पढ़ें:
बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियाँ हो हर तरफ ऐसी दुआ लिखते हैं हम
आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
          ऐसी साजिश के लिए हर बद्दुआ लिखते हैं हम

रौशनी का नाम दे कर आपने बाँटे हैं जो
उन अंधेरों को कुचलता हौसला लिखते हैं हम
अँग्रेज़ी साहित्य में सनातकोत्तर डिग्री प्राप्त द्विज जी राजकीय पॉलीटेक्निक, सुन्दर नगर , जिला मंडी में विभागाध्यक्ष अनुप्रयुक्त विज्ञान एवं मानविकी के पद पर कार्य रत हैं , ग़ज़ल लेखन उनका शौक भी है और समाज में हो रही असंगतियों को देख मन के अन्दर उठते लावे को बाहर लाने का ज़रिया भी. उनकी ग़ज़लें आपसे दार्शनिक अंदाज़ में बातें नहीं करती बल्कि सीधे सपाट शब्दों में अपनी बात कहती हैं और अपना पक्ष प्रस्तुत करती हैं:
आपके अंदाज़, हमसे पूछिए तो मोम हैं
          अपनी सुविधा के सभी सांचों में ढल जाते हैं आप

कुश्तियां, खेलों के चस्के आपके भी खूब हैं
          शेर बकरी को पटकता है बहल जाते हैं आप

सिद्धियाँ मिलने पे जैसे मन्त्र साधक मस्त हों
           शहर में होते हैं दंगे, फूल फल जाते हैं आप

"जन-गण-मन" गागर में सागर को चरितार्थ करती हुई छोटी सी किताब है जिसमें द्विज जी की लगभग साठ ग़ज़लें संगृहीत हैं. इसे आप श्री सतपाल ख्याल जी के ब्लॉग "आज की ग़ज़ल" या फिर स्वयं द्विज जी के ब्लॉग "द्विजेन्द्र ‘द्विज’" पर आन लाइन भी पढ़ सकते हैं. लेकिन साहब आन लाइन पढने में वो मज़ा नहीं आता जो मज़ा किताब को हाथ में उठाकर पढने में आता है. हालाँकि इस किताब को 'दुष्यंत-देवांश-प्रकाशन, अशोक लॉज, मारण्डा, हिमाचल प्रदेश द्वारा प्रकाशित किया गया है लेकिन इसे प्राप्त करने का आसान तरीका है द्विज जी को इस संग्रह के लिए उनके मोबाइल +919418465008 पर बात कर बधाई देते हुए उनसे किताब की प्राप्ति के लिए आग्रह करना। मेरा सौभाग्य है के मैं पिछले पांच सालों से उनसे संपर्क में हूँ .ये संपर्क अभी तक आभासी है याने सिर्फ मोबाइल पर ही उनसे बात होती है लेकिन मुझे उनसे बात करके कभी लगा ही नहीं कि मैं इनसे अभी तक नहीं मिला हूँ. मैंने ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में उनसे बहुत कुछ सीखा है और सीख रहा हूँ. इस क्षेत्र में आदरणीय पंकज सुबीर जी और प्राण साहब के साथ साथ वो भी मेरे गुरु हैं. अपनी सोच में एकदम स्पष्ट और जीवन के प्रति सकारात्मक विचार रखने वाले इस शख्श की प्रशंशा के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं. मैं दुआ करता हूँ के वो इसी तरह अपनी शायरी से हमें हमारे जीवन में फैले अंधियारों से लड़ने की ताकत देते रहें:
रास्तों पर 'ठीक शब्दों' के 
 दनदनाती ' वर्जनाएं ' हैं
          मूक जब 'संवेदनाएं' हैं
           सामने 'संभावनाएं' हैं 

          आदमी के रक्त में पलतीं 
          आज भी 'आदिम-प्रथाएं' हैं

             ये मनोरंजन नहीं करतीं
           क्यूंकि ये ग़ज़लें 'व्यथाएं' हैं

Sunday, February 19, 2012

पहाड़ी कवि की पुकार- ‘जन-गण-मन’

द्विजेंद्र द्विज के “जन- गण - मन” पर प्रख्यात समीक्षक श्री चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद

पहाड़ी कवि की पुकार- ‘जन-गण-मन’

“ये मनोरंजन नहीं करती
क्योंकि ये ग़ज़लें व्यथाएँ हैं"


हिन्दी ग़ज़ल की यात्रा अमीर ख़ुसरो से शुरू होते हुए भारतेन्दु, बद्री नारायण चौधरी, प्रताप नारायण मिश्र, नाथू राम शर्मा ‘शंकर’, जयशंकर प्रसाद,निराला, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन,,जानकी वल्लभ शास्त्री, बलबीर सिंह ‘रंग’ आदि अनगिनत कवियों की कलम से रवाँ होती गई और आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल की दूसरी पारी दुष्यन्त कुमार की हुई। आज की हिन्दी ग़ज़ल उर्दू के हुस्नो-इश्क़ और जामो-मीना को छोड़कर काफ़ी आगे निकल गई है।

“ जो हुस्नो-इश्क़ की वादी से जा सके आगे
ख़याले-शायरी को वो उड़ान दीजिएगा । "

आजकी ग़ज़ल मानव की समस्याओं और संवेदनाओं को बयाँ करती है। कभी-कभी इन्हीं पहलुओं पर अपने तेवर दिखाते हुए शायरी ‘तेवरी’ का रूप भी धर लेती है ।

‘मत बातें दरबारी कर
सीधी चोट करारी कर’


द्विजेंद्र द्विज आजके ऐसे ग़ज़लगो हैं जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुँचते रहे हैं। अब उनक पहला ग़ज़ल संग्रह “जन-गण-मन” पाठकों के बीच आया है जिसमें छप्पन ग़ज़लें संकलित हैं।

“मन ख़ाली हैं
लब जन-गण-मन’’

``निर्वासित है
क्यों जन-गण-मन"


‘द्विज’ वो पहाड़ी कवि हैं जिन्होंने अपने जीवन की चौथाई सदी मारंडा (पालमपुर) रोहड़ू ,हमीरपुर, कांगड़ा और धर्मशाला जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में गुज़ार दी । यद्यपि वे अ~म्ग्रेज़ी के प्राध्यापक हैं परन्तु अपने जज़्बात को बयाँ करने के लिए उन्होंने उन्होंने ग़ज़ल को अपना माध्यम बनाया है।

“ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़
लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़ ”


लेकिन जब इन सुन्दर मेहरबान पहाड़ों को मानव प्रदूषित करता है,तब भी वे अपने सत्कार की परंपरा को नहीं भूलते ।

“कचरा व प्लास्टिक मिले उपहार में इन्हें
सैलानियो के ‘द्विज’ हुए हैं मेज़बाँ पहाड़”


आजका कोई भी साहित्यकार जीवन के गिरते मूल्यों पर चिंता व्यक्त करने से नहीं चूकता। ‘द्विज’ ने भी “जन-गण-मन” में समाज के पतन पर चिंता व्यक्त की है। यद्यपि इस मुद्दे पर हर कोई बात करता है परंतु इसे अमली जामा कौन पहनाएगा?

“तहज़ीब यह नई है इसको सलाम कहिये
रावण जो सामने हों उनको भी राम कहिये”


“बहस के मुद्दओं में मौलवी थे पंडित थे
वहाँ ‘द्विज’ आदमी का ही निशाँ नहीं देखा”



जिन्हें सरपरस्त समझकर देश की बागडोर हम थमाते हैं वे भी झूठे आश्वासन दे कर अपनी राजनीति चलाते हैं।

“आश्वासन, भूख,बेकारी, घुटन, धोखाधड़ी
हाँ, यही सब तो दिया है आपके विश्वास ने”

राजनीति का एक और शस्त्र बन गया है मज़हब,जिसके कारन न सिर्फ़ देश का बँटवारा हुआ, बल्कि मासूम लोगों का ख़ून भी बस्तियों में बह रहा है।

“फिर से ख़ंजर थाम लेंगी हँसती-गाती बस्तियाँ
जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा”

यदि कुछ समाज सेवी इन दंगों का हल निकालना भी चाहें तो राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले इसे ख़त्म नहीं होने देते हैं।

“जमीं हैं हर गली में ख़ून की देखो कई पर्तें
मगर दंगे कभी इनको तुम्हें धोने नहीं देंगे”

“ नीयत न साफ़ और थी न जब ज़बान साफ़
होता भी कैसे आपका कोई बयान साफ़”

देश के लोग ग़रीबी की चक्की में पिस रहे हैं रोटी, कपड़ा और मकान पर नेता रात-दिन भाषण देते हैं परन्त आज भी कवि उनसे यही माँग करता है:

‘‘जो छत हमारे लिए भी कोई दिला पाए
हमें भी ऐसा कोई संविधान दीजिएगा”

‘द्विज’ ने साहित्य में फैल रहे “प्रदूषण" पर भी चिंता व्यक्त की है। जिस प्रकार शिक्षा क्षेत्र में राजनीति की जा रही है या पुरस्कारों की होड़ में उठा-पटक चल रही है, उसपर भी ‘द्विज’ ने कलम चलाई है ।

“पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
ख़ास जो संदर्भ थे केवल वो झुठलाए गए"

हुनर तो था ही नहीं उनमें जी हुज़ूरी का
इसीलिए तो ख़िताबों से दूर रक्खे गए”

द्विजेंद्र ‘द्विज’ उन ग़ज़लकारों में से एक हैं जिन्होंने दुष्यन्त की लीक पर चलते हुए हिन्दी और उर्दू को एक सूत्र में बाँधा है। ज़हीर क़ुरेशी ने इस पुस्तक की भूमिका में सही कहा है :

“भाषाई स्तर पर द्विजेंद्र ‘द्विज’ दुष्यन्त कुल के ग़ज़लकार हैं, हिन्दी और उर्दू के बीच संतुलन कायम करने वाले । द्विजेंद्र की ग़ज़लों का भाषाई लहजा सादा और साफ़ है....जहाँ तक शेरों में पसरी गई विषय वस्तु का सवाल है तो ‘द्विज’ का कैन्वास काफ़ी विस्तृत है।”

जन-गन-मन के अशआर पढ़ते हुए पाठक का एक-एक शे‘र पर दाद देने को मन चाहेगा । आशा है , इस ग़ज़लकार के प्रथम संकलन को वही सम्मान मिलेगा जो किसी भी मंझे हुए शायर के संग्रह को मिलता है।
---- चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद
1-8-28, यशवंत भवन, अलवाल,
सिकन्दराबाद -500010(आं.प्र.)


साभार:

सहकारी युग (साप्ताहिक) दिनांक 25 अक्तूबर,2004 (संपादक नीलम गुप्ता, B-ब्लॉक,26/27,अब्बास मार्केट, रामपुर-244901)

Friday, February 17, 2012

जन-गण-मन की तीसरी ग़ज़ल

जन-गण-मन की तीसरी ग़ज़ल

बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम

आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साज़िश के लिए हर बद्दुआ लिखते हैं हम

जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में
उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम

रोशनी का नाम देकर आपने बाँटे हैं जो
उन अँधेरों को कुचलता हौसला लिखते हैं हम

ला सके सबको बराबर मंज़िलों के रास्ते
हर क़दम पर एक ऐसा क़ाफ़िला लिखते हैं हम

सादर
द्विजेन्द्र द्विज

Friday, October 14, 2011

जन-गण -मन की दूसरी ग़ज़ल

आदरणीय व प्रिय मित्रो!

बहुत दिनों से नई पोस्ट नहीं लगा पाया था.

संकलन जन-गण-मन की दूसरी ग़ज़ल प्रस्तुत है.



अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने-आप में सरहद नहीं होते

न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते

फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते

तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी भला कब तक
वहाँ पर भी बसेरे हैं जहाँ गुंबद नहीं होते

चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नहीं होते

सादर
द्विजेन्द्र द्विज

Sunday, June 27, 2010

ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़

ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़
लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़

हैं तो बुलन्द हौसलों के तर्जुमाँ पहाड़
पर बेबसी के भी बने हैं कारवाँ पहाड़

थी मौसमों की मार तो बेशक बडी शदीद
अब तक बने रहे हैं मगर सख़्त-जाँ पहाड़

सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ
ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़

पत्थर-सलेट में लुटा कर अस्थियाँ तमाम
मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़

नदियों,सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद
देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़

वो तो रहेगा खोद कर उनकी जड़ें तमाम
बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़

सीनों से इनके बिजलियाँ,सड़कें गुज़र गईं
वन, जीव, जन्तु, बर्फ़, हवा, अब कहाँ पहाड़

कचरा,कबाड़,प्लास्टिक उपहार में मिले
सैलानियों के ‘द्विज’, हुए हैं मेज़बाँ पहाड़

Tuesday, June 22, 2010

एक सजग रचनाकार की संघर्ष चेतना का प्रतिरोधात्मक प्रतिज्ञापत्र

द्विज के ‘जन-गण-मन’ पर प्रख्यात समालोचक नचिकेता की समीक्षा

‘जन-गण-मन‘ द्विजेन्द्र द्विज की बेहतरीन छ्प्पन गज़लों का पहला संग्रह है। द्विजेन्द्र ‘द्विज’ उन गज़लकारों में से महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं जिन्हें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के जरिए इस पहले गज़ल संग्रह के प्रकाशन के पूर्व ही स्थापित ग़ज़लकार का दर्ज़ा मिल चुका है। दरअसल द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लों की बनावट और बुनावट अपने समकालीनों से बिल्कुल अलहदा है। द्विज के पास समकालीन यथार्थ की बहुस्तरीय संश्लिष्टता सार्थक अभिव्यक्ति देने में सक्षम भाषा है,जिसमें बिम्ब,प्रतीक और संकेतों के समन्वय और सामंजस्य की सघनता है। इसके बावजूद कहीं भी अमूर्त्तनता या अर्थहीनता का आभास नहीं मिलता।

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ के पास अपने समय और समाज के अंतर्विरोधों की भीतरी परतों को भी एक्स-रे की तरह परखने वाली सूक्षम अंतर्दृष्टि है। अपने समय की लहुलुहान हकीकत को उसमें संपूर्ण जटिलता में समग्रता के साथ व्यक्त करने की चुनौती स्वीकार करने में द्विजेन्द्र द्विज की गज़लों को कोई हिचक महसूस नहीं होती। परिणामत: उनकी ग़ज़लों से व्यापक मध्यवर्गीय जन-जीवन की त्रासदियों सामाजिक अंतर्विरोधों,राजनीतिक विसंगतियों आर्थिक असमानताओं मूल्य विघटन और सांस्कृतिक अवमूल्यन के कारणों को परखने में कोई चूक नहीं होती:

"आँखों पर बाँधी गईं ऐसी अँधेरी पट्टियाँ
घाटियों के सब सुनहरे दृश्य धुँधलाए गए

घाट था सब के लिए पर फिर भी जाने क्यों वहाँ
कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन -चुन के नहलाए गए

जब कहीं ख़तरा नहीं था आसमाँ भी साफ़ था
फिर परिंदे क्यों वहाँ सहमे हुए पाए गए"

अथवा

"सर से पाँवों तक अब भी हम भीगे हैं
कैसे छप्पर, कैसे उनके छाते हैं

सूखे में बरसात की बातें करते हैं
फिर भी पानी से वो क्यों डर जाते हैं"


रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हम रोज़ देखते हैं कि हमारे सियासी रहनुमा हमें मुंगेरी लाल के हसीन सपने दिखला कर बहलाया करते हैं और हमें उनके शोषण के नापाक इरादों का पता तब चलता है जब हमारी साँसों में ताज़ा हवा की जगह कड़वा धुआँ भर जाता है। शोषक शासक वर्ग की इन रेशमी मगर ख़तरनाक हरकतों को द्विज की ग़ज़लें बेलौस ढंग से बेनक़ाब करती हैं:

"चंद ख्वाबों को हक़ीक़त में बदलने के लिए
कितने ख़्वाबों का वहाँ ग़बन होता है

जब धुआँ साँस की चौखट पे ठहर जाता है
तब हवाओं को बुलाने का जतन होता है

या

तुम्हारे आँसुओं को सोख लेगी आग दहशत की
तुम्हें पत्थर बना देंगे तुम्हें रोने नहीं देंगे

घड़ी भर के लिए जो नींद मानों मोल भी ले ली
भयानक ख़वाब तुमको चैन से सोने नहीं देंगे ."

आज की उपभोक्तावादी संस्कृति का सबसे ज़्यादा आक्रमण संवेदना पर ही हुआ है।संवेदन शून्य आत्मपरकता और स्वार्थपरकता की ऐसी भयानक आँधी चली है कि पूरी सदी ही पथरा गई-सी दृष्टिगोचर होती है। संवेदनहीन, स्पंदनविहीन इस अमानवीय यातनागृह से छुटकारा पाने की छटपटाहट द्विजेन्द्र द्विज की इन ग़ज़लों में शिद्दत के साथ और मार्मिक ढंग से मुखरित हुई है:

"ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ
यह सदी पत्थर-सी है, संवेदनाओं के ख़िलाफ़

ठीक भी होता नहीं मर भी नहीं पाता मरीज़
कीजिए कुछ तो दवा ऐसी दवाओं के ख़िलाफ़"


निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि द्विजेन्द्र द्विज मौजूदा दौर के सामाजिक यथार्थ और उसके अंतर्विरोधों की भीतरी परतों को सिर्फ़ उघारते भर नहीं अपितु नई समाज रचना के लिए संघर्षशील आवाम को एकजुट संघर्ष के वास्ते लामबद्ध करते हैं।इस लिए इनकी ग़ज़लों में ऐसा बहुत कुछ नवीन और मौलिक है जो केवल नएपन के इज़हार के लिए नहीं बल्कि अपने सामाजिक अनुभव को राजनीतिक विमर्श की शक्ल देने के सार्थक प्रयास का नतीजा मालूम होता है। अतएव द्विजेन्द्र द्विज की सार्थक ग़ज़लें अपने पाठकों की संवेदना के कोमल तंतुओं को केवल सहलाती, गुदगुदाती और रोमांचित ही नहीं करतीं प्रत्युत बेचैन भी करती हैं:

" जिया झुका के जो सर ज़िल्लतों में, ज़ुल्मों में
न हो वो क़त्ल कोई बेज़ुबाँ नहीं देखा

पिलाएगा तुझे पानी जो तेरे घर आकर
अभी किसी ने भी ऐसा कुआँ नहीं देखा"

अथवा

"धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे
बैठ गए हैं जमकर जो हिमपात हमारी यादों में

सह जाने का चुप रहने का मतलब यह बिल्कुल भी नहीं
पलता नहीं है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में"

द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लें, दरहक़ीक़त,समकालीन सामाजिक राजनीतिक वातावरण पर एक सजग रचनाकार की संघर्ष चेतना का प्रतिरोधात्मक प्रतिज्ञापत्र हैं \ कहीं यह आईना दिखाती हैं तो कहीं मुँह चिढ़ाती प्रतीत होती हैं कहीं पीड़ा है तो कहीं आक्रोश भी है। ये ग़ज़लें कही चेतावनी देती हैं तो कहीं चुनौती। कहीं अपील करती महसूस होती हैं तो कहीं संघर्ष का आह्वान करती।कहीं फटकार है तो कहीं दिलासा। कहीं सलाह है तो कहीं संवाद। कहीं रचनाकार का आत्मकथ्य नज़र आती हैं तो कहीं वक्तव्य भी। इन्हीं द्वन्द्वात्मक अंतर्विरोधों/मनस्थितियों की खुरदरी ज़मीन पर खड़ी हो कर द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लें अपने समय और समाज को और अधिक मनवीय बनाने के निमित्त संघर्षरत हैं ख़ूबसूरत अंदाज़े- बयाँ में नुमाया द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लों की वैचारिक अंतर्वस्तु जितनी पुख़्ता और मज़बूत है, प्रभावी अंतर्वस्तु फाँक भी उतनी ही अधिक चौड़ी है।


साभार: कृष्णानंद कृष्ण के संपादन में पटना से प्रकाशित पत्रिका पुन: (अंक-१५, नवम्बर-२००३)