Sunday, February 19, 2012

पहाड़ी कवि की पुकार- ‘जन-गण-मन’

द्विजेंद्र द्विज के “जन- गण - मन” पर प्रख्यात समीक्षक श्री चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद

पहाड़ी कवि की पुकार- ‘जन-गण-मन’

“ये मनोरंजन नहीं करती
क्योंकि ये ग़ज़लें व्यथाएँ हैं"


हिन्दी ग़ज़ल की यात्रा अमीर ख़ुसरो से शुरू होते हुए भारतेन्दु, बद्री नारायण चौधरी, प्रताप नारायण मिश्र, नाथू राम शर्मा ‘शंकर’, जयशंकर प्रसाद,निराला, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन,,जानकी वल्लभ शास्त्री, बलबीर सिंह ‘रंग’ आदि अनगिनत कवियों की कलम से रवाँ होती गई और आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल की दूसरी पारी दुष्यन्त कुमार की हुई। आज की हिन्दी ग़ज़ल उर्दू के हुस्नो-इश्क़ और जामो-मीना को छोड़कर काफ़ी आगे निकल गई है।

“ जो हुस्नो-इश्क़ की वादी से जा सके आगे
ख़याले-शायरी को वो उड़ान दीजिएगा । "

आजकी ग़ज़ल मानव की समस्याओं और संवेदनाओं को बयाँ करती है। कभी-कभी इन्हीं पहलुओं पर अपने तेवर दिखाते हुए शायरी ‘तेवरी’ का रूप भी धर लेती है ।

‘मत बातें दरबारी कर
सीधी चोट करारी कर’


द्विजेंद्र द्विज आजके ऐसे ग़ज़लगो हैं जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुँचते रहे हैं। अब उनक पहला ग़ज़ल संग्रह “जन-गण-मन” पाठकों के बीच आया है जिसमें छप्पन ग़ज़लें संकलित हैं।

“मन ख़ाली हैं
लब जन-गण-मन’’

``निर्वासित है
क्यों जन-गण-मन"


‘द्विज’ वो पहाड़ी कवि हैं जिन्होंने अपने जीवन की चौथाई सदी मारंडा (पालमपुर) रोहड़ू ,हमीरपुर, कांगड़ा और धर्मशाला जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में गुज़ार दी । यद्यपि वे अ~म्ग्रेज़ी के प्राध्यापक हैं परन्तु अपने जज़्बात को बयाँ करने के लिए उन्होंने उन्होंने ग़ज़ल को अपना माध्यम बनाया है।

“ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़
लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़ ”


लेकिन जब इन सुन्दर मेहरबान पहाड़ों को मानव प्रदूषित करता है,तब भी वे अपने सत्कार की परंपरा को नहीं भूलते ।

“कचरा व प्लास्टिक मिले उपहार में इन्हें
सैलानियो के ‘द्विज’ हुए हैं मेज़बाँ पहाड़”


आजका कोई भी साहित्यकार जीवन के गिरते मूल्यों पर चिंता व्यक्त करने से नहीं चूकता। ‘द्विज’ ने भी “जन-गण-मन” में समाज के पतन पर चिंता व्यक्त की है। यद्यपि इस मुद्दे पर हर कोई बात करता है परंतु इसे अमली जामा कौन पहनाएगा?

“तहज़ीब यह नई है इसको सलाम कहिये
रावण जो सामने हों उनको भी राम कहिये”


“बहस के मुद्दओं में मौलवी थे पंडित थे
वहाँ ‘द्विज’ आदमी का ही निशाँ नहीं देखा”



जिन्हें सरपरस्त समझकर देश की बागडोर हम थमाते हैं वे भी झूठे आश्वासन दे कर अपनी राजनीति चलाते हैं।

“आश्वासन, भूख,बेकारी, घुटन, धोखाधड़ी
हाँ, यही सब तो दिया है आपके विश्वास ने”

राजनीति का एक और शस्त्र बन गया है मज़हब,जिसके कारन न सिर्फ़ देश का बँटवारा हुआ, बल्कि मासूम लोगों का ख़ून भी बस्तियों में बह रहा है।

“फिर से ख़ंजर थाम लेंगी हँसती-गाती बस्तियाँ
जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा”

यदि कुछ समाज सेवी इन दंगों का हल निकालना भी चाहें तो राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले इसे ख़त्म नहीं होने देते हैं।

“जमीं हैं हर गली में ख़ून की देखो कई पर्तें
मगर दंगे कभी इनको तुम्हें धोने नहीं देंगे”

“ नीयत न साफ़ और थी न जब ज़बान साफ़
होता भी कैसे आपका कोई बयान साफ़”

देश के लोग ग़रीबी की चक्की में पिस रहे हैं रोटी, कपड़ा और मकान पर नेता रात-दिन भाषण देते हैं परन्त आज भी कवि उनसे यही माँग करता है:

‘‘जो छत हमारे लिए भी कोई दिला पाए
हमें भी ऐसा कोई संविधान दीजिएगा”

‘द्विज’ ने साहित्य में फैल रहे “प्रदूषण" पर भी चिंता व्यक्त की है। जिस प्रकार शिक्षा क्षेत्र में राजनीति की जा रही है या पुरस्कारों की होड़ में उठा-पटक चल रही है, उसपर भी ‘द्विज’ ने कलम चलाई है ।

“पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
ख़ास जो संदर्भ थे केवल वो झुठलाए गए"

हुनर तो था ही नहीं उनमें जी हुज़ूरी का
इसीलिए तो ख़िताबों से दूर रक्खे गए”

द्विजेंद्र ‘द्विज’ उन ग़ज़लकारों में से एक हैं जिन्होंने दुष्यन्त की लीक पर चलते हुए हिन्दी और उर्दू को एक सूत्र में बाँधा है। ज़हीर क़ुरेशी ने इस पुस्तक की भूमिका में सही कहा है :

“भाषाई स्तर पर द्विजेंद्र ‘द्विज’ दुष्यन्त कुल के ग़ज़लकार हैं, हिन्दी और उर्दू के बीच संतुलन कायम करने वाले । द्विजेंद्र की ग़ज़लों का भाषाई लहजा सादा और साफ़ है....जहाँ तक शेरों में पसरी गई विषय वस्तु का सवाल है तो ‘द्विज’ का कैन्वास काफ़ी विस्तृत है।”

जन-गन-मन के अशआर पढ़ते हुए पाठक का एक-एक शे‘र पर दाद देने को मन चाहेगा । आशा है , इस ग़ज़लकार के प्रथम संकलन को वही सम्मान मिलेगा जो किसी भी मंझे हुए शायर के संग्रह को मिलता है।
---- चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद
1-8-28, यशवंत भवन, अलवाल,
सिकन्दराबाद -500010(आं.प्र.)


साभार:

सहकारी युग (साप्ताहिक) दिनांक 25 अक्तूबर,2004 (संपादक नीलम गुप्ता, B-ब्लॉक,26/27,अब्बास मार्केट, रामपुर-244901)

2 comments:

  1. "जन गण मन" किताब का बहुत ही सुन्दर और सार गर्भित विश्लेषण किया है आपने. आपकी लेखनी को सलाम.

    नीरज

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