Sunday, June 27, 2010

ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़

ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़
लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़

हैं तो बुलन्द हौसलों के तर्जुमाँ पहाड़
पर बेबसी के भी बने हैं कारवाँ पहाड़

थी मौसमों की मार तो बेशक बडी शदीद
अब तक बने रहे हैं मगर सख़्त-जाँ पहाड़

सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ
ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़

पत्थर-सलेट में लुटा कर अस्थियाँ तमाम
मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़

नदियों,सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद
देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़

वो तो रहेगा खोद कर उनकी जड़ें तमाम
बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़

सीनों से इनके बिजलियाँ,सड़कें गुज़र गईं
वन, जीव, जन्तु, बर्फ़, हवा, अब कहाँ पहाड़

कचरा,कबाड़,प्लास्टिक उपहार में मिले
सैलानियों के ‘द्विज’, हुए हैं मेज़बाँ पहाड़

Tuesday, June 22, 2010

एक सजग रचनाकार की संघर्ष चेतना का प्रतिरोधात्मक प्रतिज्ञापत्र

द्विज के ‘जन-गण-मन’ पर प्रख्यात समालोचक नचिकेता की समीक्षा

‘जन-गण-मन‘ द्विजेन्द्र द्विज की बेहतरीन छ्प्पन गज़लों का पहला संग्रह है। द्विजेन्द्र ‘द्विज’ उन गज़लकारों में से महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं जिन्हें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के जरिए इस पहले गज़ल संग्रह के प्रकाशन के पूर्व ही स्थापित ग़ज़लकार का दर्ज़ा मिल चुका है। दरअसल द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लों की बनावट और बुनावट अपने समकालीनों से बिल्कुल अलहदा है। द्विज के पास समकालीन यथार्थ की बहुस्तरीय संश्लिष्टता सार्थक अभिव्यक्ति देने में सक्षम भाषा है,जिसमें बिम्ब,प्रतीक और संकेतों के समन्वय और सामंजस्य की सघनता है। इसके बावजूद कहीं भी अमूर्त्तनता या अर्थहीनता का आभास नहीं मिलता।

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ के पास अपने समय और समाज के अंतर्विरोधों की भीतरी परतों को भी एक्स-रे की तरह परखने वाली सूक्षम अंतर्दृष्टि है। अपने समय की लहुलुहान हकीकत को उसमें संपूर्ण जटिलता में समग्रता के साथ व्यक्त करने की चुनौती स्वीकार करने में द्विजेन्द्र द्विज की गज़लों को कोई हिचक महसूस नहीं होती। परिणामत: उनकी ग़ज़लों से व्यापक मध्यवर्गीय जन-जीवन की त्रासदियों सामाजिक अंतर्विरोधों,राजनीतिक विसंगतियों आर्थिक असमानताओं मूल्य विघटन और सांस्कृतिक अवमूल्यन के कारणों को परखने में कोई चूक नहीं होती:

"आँखों पर बाँधी गईं ऐसी अँधेरी पट्टियाँ
घाटियों के सब सुनहरे दृश्य धुँधलाए गए

घाट था सब के लिए पर फिर भी जाने क्यों वहाँ
कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन -चुन के नहलाए गए

जब कहीं ख़तरा नहीं था आसमाँ भी साफ़ था
फिर परिंदे क्यों वहाँ सहमे हुए पाए गए"

अथवा

"सर से पाँवों तक अब भी हम भीगे हैं
कैसे छप्पर, कैसे उनके छाते हैं

सूखे में बरसात की बातें करते हैं
फिर भी पानी से वो क्यों डर जाते हैं"


रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हम रोज़ देखते हैं कि हमारे सियासी रहनुमा हमें मुंगेरी लाल के हसीन सपने दिखला कर बहलाया करते हैं और हमें उनके शोषण के नापाक इरादों का पता तब चलता है जब हमारी साँसों में ताज़ा हवा की जगह कड़वा धुआँ भर जाता है। शोषक शासक वर्ग की इन रेशमी मगर ख़तरनाक हरकतों को द्विज की ग़ज़लें बेलौस ढंग से बेनक़ाब करती हैं:

"चंद ख्वाबों को हक़ीक़त में बदलने के लिए
कितने ख़्वाबों का वहाँ ग़बन होता है

जब धुआँ साँस की चौखट पे ठहर जाता है
तब हवाओं को बुलाने का जतन होता है

या

तुम्हारे आँसुओं को सोख लेगी आग दहशत की
तुम्हें पत्थर बना देंगे तुम्हें रोने नहीं देंगे

घड़ी भर के लिए जो नींद मानों मोल भी ले ली
भयानक ख़वाब तुमको चैन से सोने नहीं देंगे ."

आज की उपभोक्तावादी संस्कृति का सबसे ज़्यादा आक्रमण संवेदना पर ही हुआ है।संवेदन शून्य आत्मपरकता और स्वार्थपरकता की ऐसी भयानक आँधी चली है कि पूरी सदी ही पथरा गई-सी दृष्टिगोचर होती है। संवेदनहीन, स्पंदनविहीन इस अमानवीय यातनागृह से छुटकारा पाने की छटपटाहट द्विजेन्द्र द्विज की इन ग़ज़लों में शिद्दत के साथ और मार्मिक ढंग से मुखरित हुई है:

"ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ
यह सदी पत्थर-सी है, संवेदनाओं के ख़िलाफ़

ठीक भी होता नहीं मर भी नहीं पाता मरीज़
कीजिए कुछ तो दवा ऐसी दवाओं के ख़िलाफ़"


निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि द्विजेन्द्र द्विज मौजूदा दौर के सामाजिक यथार्थ और उसके अंतर्विरोधों की भीतरी परतों को सिर्फ़ उघारते भर नहीं अपितु नई समाज रचना के लिए संघर्षशील आवाम को एकजुट संघर्ष के वास्ते लामबद्ध करते हैं।इस लिए इनकी ग़ज़लों में ऐसा बहुत कुछ नवीन और मौलिक है जो केवल नएपन के इज़हार के लिए नहीं बल्कि अपने सामाजिक अनुभव को राजनीतिक विमर्श की शक्ल देने के सार्थक प्रयास का नतीजा मालूम होता है। अतएव द्विजेन्द्र द्विज की सार्थक ग़ज़लें अपने पाठकों की संवेदना के कोमल तंतुओं को केवल सहलाती, गुदगुदाती और रोमांचित ही नहीं करतीं प्रत्युत बेचैन भी करती हैं:

" जिया झुका के जो सर ज़िल्लतों में, ज़ुल्मों में
न हो वो क़त्ल कोई बेज़ुबाँ नहीं देखा

पिलाएगा तुझे पानी जो तेरे घर आकर
अभी किसी ने भी ऐसा कुआँ नहीं देखा"

अथवा

"धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे
बैठ गए हैं जमकर जो हिमपात हमारी यादों में

सह जाने का चुप रहने का मतलब यह बिल्कुल भी नहीं
पलता नहीं है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में"

द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लें, दरहक़ीक़त,समकालीन सामाजिक राजनीतिक वातावरण पर एक सजग रचनाकार की संघर्ष चेतना का प्रतिरोधात्मक प्रतिज्ञापत्र हैं \ कहीं यह आईना दिखाती हैं तो कहीं मुँह चिढ़ाती प्रतीत होती हैं कहीं पीड़ा है तो कहीं आक्रोश भी है। ये ग़ज़लें कही चेतावनी देती हैं तो कहीं चुनौती। कहीं अपील करती महसूस होती हैं तो कहीं संघर्ष का आह्वान करती।कहीं फटकार है तो कहीं दिलासा। कहीं सलाह है तो कहीं संवाद। कहीं रचनाकार का आत्मकथ्य नज़र आती हैं तो कहीं वक्तव्य भी। इन्हीं द्वन्द्वात्मक अंतर्विरोधों/मनस्थितियों की खुरदरी ज़मीन पर खड़ी हो कर द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लें अपने समय और समाज को और अधिक मनवीय बनाने के निमित्त संघर्षरत हैं ख़ूबसूरत अंदाज़े- बयाँ में नुमाया द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लों की वैचारिक अंतर्वस्तु जितनी पुख़्ता और मज़बूत है, प्रभावी अंतर्वस्तु फाँक भी उतनी ही अधिक चौड़ी है।


साभार: कृष्णानंद कृष्ण के संपादन में पटना से प्रकाशित पत्रिका पुन: (अंक-१५, नवम्बर-२००३)

Thursday, June 3, 2010

सच्चे गीत उल्लास के

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ के ग़ज़ल संकलन जन-गण-मन पर डा० आत्मा राम (प्रख्यात समालोचक, शिक्षाविद, व्यंग्यकार,तथा पूर्व शिक्षा निदेशक हिमाचल प्रदेश)


द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लें सरल भाषा में तीखे और कारगर भाषा में सीधे तीर के समान हैं जो अपने निशाने पर निरन्तर और बहुत समय तक पहुँचती और प्रहार करती हैं. ‘जन-गण-मन’ में संग्रहीत ५६ ग़ज़लें मानों ५६ अनूठे पकवानों की महक ,रस,स्वाद से ओतप्रोत हैं. हर ग़ज़ल अपने अंदाज़ में है और आज के संसार का, उसकी गतिविधियों और सोच का सारांश प्रस्तुत करती हैं.

हास्य-व्यंग्य एक स्वस्थ तथा स्थाई उज्ज्वलता की पृष्ट -भूमि में किया गया है जिसमें न तो किसी प्रकार की दुरूहता या रिक्तता का अंशमात्र है, और न ही मज़ाक़ की शुष्कता और उदण्डता का आभास है - क्योंकि जैसे कि महात्मा मीर दाद कहते हैं - "मज़ाक़ ने मज़ाक़ उड़ाने वालों का सदा मज़ाक़ उड़ाया है." मानो कवि अपने आप और अन्य सभी को मीठी भाषा में उपदेश कर रहा हो:

"मत बातें दरबारी कर
सीधी चोट करारी कर"
इन गुणों के कारण "जन-गण-मन" की प्रत्येक ग़ज़ल को बार-बार पढ़ने को दिल करता है.एक ही लय में न होने के कारण इनमें विविधता है,अद्भुत रस है. आम आदमी केअनुभवों,उसकी आवाज़ के, उसके मन में उठते सवालों को अति सुन्दर ,सरस और सरल् भाषा में व्यक्त किया गया है .आजके ज़माने में क्या बुरा-भला हो रहा है, कैसे उसके विरुद्ध आवाज़ उठानी है,इसकी ओर संकेत करते कवि साफ़ लिखता है:

"बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियाँ हो हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम"

इसी तरह बड़ी गहरी चोट की है कवि ने :

"अँधेरे चन्द लोगों का अगर मकसद नहीं होते
यहाँ के लोग अपनेआप में सरहद नहीं होते"

इस शेर में शक्ति है, दिशा है, तीखापन है. पढ़कर व्यक्ति अपने आपको, अन्य को झंझोड़ने लगता है.

उर्दू के शब्द प्राय: प्रयुक्त किए गए हैं परन्तु उनका अपना ही महत्व है, विशेष
स्थान है. एक उदाहरण है:

"रात में क्यों वो सियाही का बनेगा वारिस
धूप हर शख़्स के क़दमों में बिछाने वाला"


‘द्विज’ की ग़ज़लें कालरिज के सिद्धान्त "श्रेष्ठतम शब्द श्रेष्ठतम स्थान पर" की याद दिलाती हैं.

‘द्विज’ का ध्येय कुछ कहना है सरल, आसान ग़ज़ल के माध्यम से. अत: यहाँ भाषा की क्लिष्टता नहीं रखी गई है. यह तो आम लोगों की बोली में उनके भाव जज़्बे, विचार उभारने तथा व्यक्त करने का सुन्दर तथा प्रभावशाली प्रयास है. हर जगह हर तरीक़े से ठगे-दले जाते आदमी को कवि कैसे जगाने का यत्न करता है ,यह देखने योग्य है:

"
हर क़दम पर ठगा गया फिर भी
तू ख़बरदार ही नहीं होता.

बेच डालेंगे वो तेरी दुनिया
तुझसे इनकार ही ही नहीं होता

जो ‘शरण’ में गुनाह करता है
वो गुनहगार ही नहीं होता

जो ख़बर ले सके सितमगर की
अब वो अख़बार ही नहीं होता"


निश्चय ही द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लें औरों की रचनाओं से बिलकुल अलग हैं, अपनेआप में अपनी पहचान हैं . सुगम, स्पष्ट और सादा भाषा में लिखी गईं ये रम्य रचनात्मक कृतियाँ आज के इतिहास का, हालात का विशुद्ध जायज़ा भी हैं और समीक्षात्मक मूल्यांकन भी . बहुत-सी पंक्तियाँ स्वत: ही स्मरण हो जाती हैं. यहाँ कोई रोमांस की नोंक-झोंक नहीं. मनोरंजन नहीं. खोखली हँसी बिखेरने की मंशा नहीं. केवल आज के मानव, जन गण मन का दर्द व्यथा बयान करने, बताने की सतत, सफल कोशिश है, इस दौर को स्पषटतया दिखाने का का श्लाघनीय प्रयत्न है. क्योंकि:

"अनगिनत मायूसियों ख़ामोशियों के दौर में
देखना ‘द्विज’ छेड़ कर कोई ग़ज़ल उल्लास की"

‘द्विज’ की ग़ज़लें वस्तुत: कई बार उर्दू की प्रसिद्ध कविता "बुलबुल की फ़रियाद" की याद दिलाती हैं, जहाँ बुलबुल पिंजरे में बंद अपने स्वतंत्रता के दिनों को याद कर फ़रियाद करते हुए कहती है:

"गाना इसे समझकर ख़ुश हों न सुनने वाले
टूटे हुए दिलों की फ़रियाद यह सदा है"

यहाँ ‘द्विज’ भी इसी लय में कहता है, अपनी कविता के बारे में:

छोड़िए भी... फिर कभी सुनना
ये बहुत लम्बी कथाएँ हैं

ये मनोरंजन नहीं करतीं
क्योंकि ये ग़ज़ले व्यथाएँ हैं"

परन्तु इन ग़ज़लों को बार-बार सुनने की, पढ़ने की, इच्छा बनी रहेगी- यह मेरा दृढ़ विश्वास है. आशा है ‘द्विज’ भविष्य में भी और भी ऐसी रचनाएँ प्रस्तुत करेगा और हमारा समाज तथा साहित्य संसार उसकी ग़ज़लों का हार्दिक स्वागत करेगा और इसे सुधारात्मक दृष्टि से भी लेगा.


‘हिमसुमन' (मई-2007) से साभार