आदरणीय व प्रिय मित्रो!
बहुत दिनों से नई पोस्ट नहीं लगा पाया था.
संकलन जन-गण-मन की दूसरी ग़ज़ल प्रस्तुत है.
अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने-आप में सरहद नहीं होते
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते
तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी भला कब तक
वहाँ पर भी बसेरे हैं जहाँ गुंबद नहीं होते
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नहीं होते
सादर
द्विजेन्द्र द्विज
sarthak post
ReplyDeleteद्विज जी, बहुत ही खूबसूरत गज़ल है. मतले से लेकर आखिरी शेर तक ज़ोरदार!
ReplyDeleteन भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
ReplyDeleteहमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
बहुत खूब
ReplyDelete♥
आदरणीय द्विजेन्द्र द्विज जी
सस्नेहाभिवादन !
आपकी रचनाओं को तो तरस गए हम …
आज अचानक यहां आया तो बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल आपकी छवि के अनुरूप , पढ़ कर मुग्ध हो गया …
न भूलो, तुमने ये ऊंचाईयां भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
पूरी ग़ज़ल शानदार है जनाबे मुहतरम !
मुबारकबाद लफ़्ज़ आपकी ग़ज़लियात की सिताइश के लिए नाकाफ़ी है …
हार्दिक बधाई और मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
वाह सर बहुत अछी पंक्तियॉ लिखि हें आपने
ReplyDeleteचले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नहीं होते
ये पंक्तियॉ मुझे बहुत अछी लगी
behtareen sir....www.omjaijagdeesh.blogspot.com
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