Tuesday, February 16, 2021

अन्याय और शोषण के विरुद्ध गरजती ग़ज़लें

अन्याय और शोषण के विरुद्ध गरजती ग़ज़ल

डा. ब्रह्मजीत गौतम

 हिंदी ग़ज़ल कारों के बीच द्विजेंद्र द्विज एक सम्मानित नाम है । अपने प्रथम गजल संग्रह जन-गण-मन के माध्यम से उन्होंने साहित्य जगत में अपनी एक ख़ास जगह और छवि बनाई है। कथ्य के आधार पर ग़ज़ल के परंपरागत मिज़ाज और सोच के दायरे से बाहर निकलकर उन्होंने आम आदमी की व्यथा, शोषण और दयनीयता को अपनी ग़ज़लों में अभिव्यक्ति का विषय बनाया है। देश और समाज तथा उसमें रहने वाले लोगों के प्रति उनकी  चिंता, बेचैनी और छटपटाहट लगभग प्रत्येक ग़ज़ल में देखी जा सकती है। पूरे संग्रह की छप्पन ग़ज़लों में शायद एक भी ग़ज़ल नहीं होगी जो हुस्न और इश्क की सुखनवरी के परंपरागत दायरे में क़ैद हो बल्कि कवि तो ईश्वर से यह प्रार्थना करता है कि वह उस में ऐसे विचार रोशन करें, जो उसकी शायरी को इस घेरे से आगे ले जा कर एक नई ऊँचाई दिला सकें:

 जो हुस्न और इश्क की वादी से जा सके आगे

 ख़याल ए शायरी को वह उठान दीजिएगा 

अपने देश में धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र तथा मंदिर-मस्जिद के नाम पर जो राजनीति चल रही है, उसे लेकर कवि बहुत व्याकुल है। उसकी इस व्याकुलता को इन शे'रों में देखा जा सकता है:


 जबान, ज़ात, या मज़हब जहाँ न टकराएँ

 हमें हुजूर वो हिंदुस्तान दीजिएगा ।


तुम्हारे ख़्वाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद हैं

हमारे ख़्वाब में तो सिर्फ रोटी दाल बसते हैं 


मुद्दतों से हम तो यारों एक भारतवर्ष हैं 

आप ही पंजाब या कश्मीर या तामिल रहे


संग्रह की गजलें कवि की जिस पीड़ा और विकलता की साक्ष्य बनी हैं,  वह शायद उनका भोगा हुआ यथार्थ हैं। कदाचित इसीलिए वे आख्यानपरक बिंबों से लेकर पर से लेकर आज की त्रासद स्थितियों से होते हुए आदमी के अंदर की आग को पन्नों पर उतार सके हैं:


कहीं हैं ख़ून के जोहड़ कहीं अम्बार लाशों के

समझ में यह नहीं आता ये किस मंजिल के रस्ते हैं 


घाट था  सबके फिर भी न जाने क्यों वहाँ

कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन चुन के नहलाए गए


जी-हुज़ूरी आज सफलता पाने का शॉर्टकट है। चाहे पदोन्नति प्राप्त करनी हो या कोई ख़िताब, इससे अच्छा कोई उपाय नहीं इसीलिए जगह-जगह कवि ने इस कला पर कटाक्ष किए हैं:


 हुनर तो था ही नहीं उनमें जी हुजूरी का

 इसीलिए तो ख़िताबों से दूर रखे गए 


क़दमों की धूल चाट के छूना था आसमान 

थे  हम भी बाहुनर मगर ऐसा हुनर न था


घेरे हुए  हुज़ूर को है जी हजूर भीड़

कैसे सुनेंगे प्रार्थना या फिर अज़ान साफ़


द्विजेंद्र द्विज की ग़ज़लों का स्थापत्य शब्दों में निहित है और उन्हें अपने शब्दों की ताक़त का पूरा एहसास है उनकी ग़ज़लों में शब्द एक विशेष ऊर्जा से संपन्न होकर आते हैं। शब्द चयन के प्रति उनकी सजगता और आस्था एक ऐसी ख़ूबी है, जिसके माध्यम से भी अपने मंतव्य को मर्म तक पहुँचा देते हैं।कदाचित इसी लिए  इसीलिए उनके अशआर प्रेरणा देते हैं, कहीं चेतावनी देते हैं तो कहीं तिलमिला देते हैं:


 मार खाता न अगर सांचे की 

 मोम आकार ही नहीं होता


न भूलो तुमने ये ऊँचाइयाँ भी हमसे छीनी हैं

हमारा क़द  नहीं लेते तो आज नहीं होते 


एक दिन तो मैं उड़ा ले जाऊंगी आखिर तुम्हें

खुद हवा पहचान थी काली घटाओं के खिलाफ 


यह तो खुदा के राम के बंदे हैं इनसे आप

पूजा घरों के टूटते गुंबद में पूछिए 


द्विजेन्द्र द्विज अपनी बात प्रतीकों के माध्यम से कहना पसंद करते हैं। उनके प्रतीक कथ्य को दुरूह और क्लिष्ट बनाने के लिए नहीं,  बल्कि उसे अधिक बोधगम्य और प्रभावशाली बनाने के लिए होते हैं ।’अँधेरे’  ’उजाले’ उनके प्रतीक हैं। इन प्रतीकों का प्रयोग उन्होंने प्राय:  आम आदमी की जिंदगी से जुड़े हुए दुख- सुख  या कष्टों-सुविधाओं के लिए किया है। कभी-कभी वे इनके स्थान पर इनके पर्यायवाची या इन्हीं का आशय  रखने वाले ’तम’ ’रोशनी’ ’सूरज’ ’मशाल’ इत्यादि शब्दों का प्रयोग भी  कर लेते हैं।  उनके अन्य प्रतीकों में ’बौने’ ’बरगद’ ’पर’ ’आसमान’ ’परिंदे’ ’कांटे’ ’धुआं’ ’हवा’ ’खोटे सिक्के’ ’नदी’ ’समुंदर’ ’मछलियाँ’ ’कछुआ’ ’खरगोश’ आदि हैं । कहीं-कहीं उन्होंने ’कहकहा’, ’संत्रास’, ’मधुमास’,’पतझड़’, जैसे अमूर्त प्रतीकों का प्रयोग भी किया है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रतीकों के प्रयोग से उनकी अभिव्यक्ति में लाघव और पैनापन  आया है।


 गजल की बात चले और बह्र की चर्चा न हो तो यह बात अधूरी- सी रहेगी। कवि ने इस भ्रम को छोड़ दिया है कि हिंदी में जो गजलें कही जा रही हैं उनमें बहर प्राय: खारिज होती है।  जन-गण-मन की ग़ज़लें बहर की कसौटी पर भी खरी  और निर्दोष हैं ।  कवि ने यद्यपि गिनी चुनी बहरें ही अपनाई हैं लेकिन वे यह एहसास कराने में समर्थ हैं कि कवि को बह्र और अरूज़ के अनुशासन की पूरी समझ है । जन गण मन  की ग़ज़लें पढ़कर कुछ आलोचक यह आरोप लगा सकते हैं कि ये सपाट बयानी की शिकार हैं लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि इन ग़ज़लों का विषय महबूबा के साथ गुफ़्तगू नहीं, अपितु ज़िंदगी की बेरहम सच्चाइयों का बयान करना है। कवि ने ग़ज़ल को मख़मली आरामगाह से बाहर निकालकर यथार्थ की खुरदरी ज़मीन से रूबरू कराया है।  ऐसे में उनके पास कल्पना के घोड़े दौड़ाने का अवसर नहीं था। कबीर जैसी सीधी और खरी बात कहने के लिए भाषा भी कबीर जैसी ही होनी चाहिए और वैसे ही भाषा शैली कवि ने अपनाई है।  विश्वास है कि यह संग्रह उन्हें  अवश्य ही प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि देगा।

डा. ब्रह्मजीत गौतम

साभार: गोलकोंडा दर्पण ,जनवरी 2006  हैदराबाद

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