tag:blogger.com,1999:blog-81254019947391053922024-02-07T06:09:11.880-08:00जन-गण-मनद्विजेन्द्र द्विज का ग़जल संग्रहजन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.comBlogger18125tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-52597982927075045672021-02-16T17:00:00.002-08:002021-02-16T17:00:59.841-08:00अन्याय और शोषण के विरुद्ध गरजती ग़ज़लें<p><b>अन्याय और शोषण के विरुद्ध गरजती ग़ज़ल</b></p><p><b><i>डा. ब्रह्मजीत गौतम</i></b></p><p> हिंदी ग़ज़ल कारों के बीच द्विजेंद्र द्विज एक सम्मानित नाम है । अपने प्रथम गजल संग्रह <b><i>जन-गण-मन</i></b> के माध्यम से उन्होंने साहित्य जगत में अपनी एक ख़ास जगह और छवि बनाई है। कथ्य के आधार पर ग़ज़ल के परंपरागत मिज़ाज और सोच के दायरे से बाहर निकलकर उन्होंने आम आदमी की व्यथा, शोषण और दयनीयता को अपनी ग़ज़लों में अभिव्यक्ति का विषय बनाया है। देश और समाज तथा उसमें रहने वाले लोगों के प्रति उनकी चिंता, बेचैनी और छटपटाहट लगभग प्रत्येक ग़ज़ल में देखी जा सकती है। पूरे संग्रह की छप्पन ग़ज़लों में शायद एक भी ग़ज़ल नहीं होगी जो हुस्न और इश्क की सुखनवरी के परंपरागत दायरे में क़ैद हो बल्कि कवि तो ईश्वर से यह प्रार्थना करता है कि वह उस में ऐसे विचार रोशन करें, जो उसकी शायरी को इस घेरे से आगे ले जा कर एक नई ऊँचाई दिला सकें:</p><p> <i><b>जो हुस्न और इश्क की वादी से जा सके आगे</b></i></p><p><i><b> ख़याल ए शायरी को वह उठान दीजिएगा </b></i></p><p>अपने देश में धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र तथा मंदिर-मस्जिद के नाम पर जो राजनीति चल रही है, उसे लेकर कवि बहुत व्याकुल है। उसकी इस व्याकुलता को इन शे'रों में देखा जा सकता है:</p><p><br /></p><p> <i><b>जबान, ज़ात, या मज़हब जहाँ न टकराएँ</b></i></p><p><i><b> हमें हुजूर वो हिंदुस्तान दीजिएगा ।</b></i></p><p><i><b><br /></b></i></p><p><i><b>तुम्हारे ख़्वाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद हैं</b></i></p><p><i><b>हमारे ख़्वाब में तो सिर्फ रोटी दाल बसते हैं </b></i></p><p><i><b><br /></b></i></p><p><i><b>मुद्दतों से हम तो यारों एक भारतवर्ष हैं </b></i></p><p><i><b>आप ही पंजाब या कश्मीर या तामिल रहे</b></i></p><p><br /></p><p>संग्रह की गजलें कवि की जिस पीड़ा और विकलता की साक्ष्य बनी हैं, वह शायद उनका भोगा हुआ यथार्थ हैं। कदाचित इसीलिए वे आख्यानपरक बिंबों से लेकर पर से लेकर आज की त्रासद स्थितियों से होते हुए आदमी के अंदर की आग को पन्नों पर उतार सके हैं:</p><p><br /></p><p><i><b>कहीं हैं ख़ून के जोहड़ कहीं अम्बार लाशों के</b></i></p><p><i><b>समझ में यह नहीं आता ये किस मंजिल के रस्ते हैं </b></i></p><p><i><b><br /></b></i></p><p><i><b>घाट था सबके फिर भी न जाने क्यों वहाँ</b></i></p><p><i><b>कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन चुन के नहलाए गए</b></i></p><p><br /></p><p>जी-हुज़ूरी आज सफलता पाने का शॉर्टकट है। चाहे पदोन्नति प्राप्त करनी हो या कोई ख़िताब, इससे अच्छा कोई उपाय नहीं इसीलिए जगह-जगह कवि ने इस कला पर कटाक्ष किए हैं:</p><p><br /></p><p><i><b> हुनर तो था ही नहीं उनमें जी हुजूरी का</b></i></p><p><i><b> इसीलिए तो ख़िताबों से दूर रखे गए </b></i></p><p><i><b><br /></b></i></p><p><i><b>क़दमों की धूल चाट के छूना था आसमान </b></i></p><p><i><b>थे हम भी बाहुनर मगर ऐसा हुनर न था</b></i></p><p><i><b><br /></b></i></p><p><i><b>घेरे हुए हुज़ूर को है जी हजूर भीड़</b></i></p><p><i><b>कैसे सुनेंगे प्रार्थना या फिर अज़ान साफ़</b></i></p><p><br /></p><p>द्विजेंद्र द्विज की ग़ज़लों का स्थापत्य शब्दों में निहित है और उन्हें अपने शब्दों की ताक़त का पूरा एहसास है उनकी ग़ज़लों में शब्द एक विशेष ऊर्जा से संपन्न होकर आते हैं। शब्द चयन के प्रति उनकी सजगता और आस्था एक ऐसी ख़ूबी है, जिसके माध्यम से भी अपने मंतव्य को मर्म तक पहुँचा देते हैं।कदाचित इसी लिए इसीलिए उनके अशआर प्रेरणा देते हैं, कहीं चेतावनी देते हैं तो कहीं तिलमिला देते हैं:</p><p><br /></p><p> <b><i>मार खाता न अगर सांचे की </i></b></p><p><b><i> मोम आकार ही नहीं होता</i></b></p><p><b><i><br /></i></b></p><p><b><i>न भूलो तुमने ये ऊँचाइयाँ भी हमसे छीनी हैं</i></b></p><p><b><i>हमारा क़द नहीं लेते तो आज नहीं होते </i></b></p><p><b><i><br /></i></b></p><p><b><i>एक दिन तो मैं उड़ा ले जाऊंगी आखिर तुम्हें</i></b></p><p><b><i>खुद हवा पहचान थी काली घटाओं के खिलाफ </i></b></p><p><b><i><br /></i></b></p><p><b><i>यह तो खुदा के राम के बंदे हैं इनसे आप</i></b></p><p><b><i>पूजा घरों के टूटते गुंबद में पूछिए </i></b></p><p><br /></p><p>द्विजेन्द्र द्विज अपनी बात प्रतीकों के माध्यम से कहना पसंद करते हैं। उनके प्रतीक कथ्य को दुरूह और क्लिष्ट बनाने के लिए नहीं, बल्कि उसे अधिक बोधगम्य और प्रभावशाली बनाने के लिए होते हैं ।’अँधेरे’ ’उजाले’ उनके प्रतीक हैं। इन प्रतीकों का प्रयोग उन्होंने प्राय: आम आदमी की जिंदगी से जुड़े हुए दुख- सुख या कष्टों-सुविधाओं के लिए किया है। कभी-कभी वे इनके स्थान पर इनके पर्यायवाची या इन्हीं का आशय रखने वाले ’तम’ ’रोशनी’ ’सूरज’ ’मशाल’ इत्यादि शब्दों का प्रयोग भी कर लेते हैं। उनके अन्य प्रतीकों में ’बौने’ ’बरगद’ ’पर’ ’आसमान’ ’परिंदे’ ’कांटे’ ’धुआं’ ’हवा’ ’खोटे सिक्के’ ’नदी’ ’समुंदर’ ’मछलियाँ’ ’कछुआ’ ’खरगोश’ आदि हैं । कहीं-कहीं उन्होंने ’कहकहा’, ’संत्रास’, ’मधुमास’,’पतझड़’, जैसे अमूर्त प्रतीकों का प्रयोग भी किया है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रतीकों के प्रयोग से उनकी अभिव्यक्ति में लाघव और पैनापन आया है।</p><p><br /></p><p> गजल की बात चले और बह्र की चर्चा न हो तो यह बात अधूरी- सी रहेगी। कवि ने इस भ्रम को छोड़ दिया है कि हिंदी में जो गजलें कही जा रही हैं उनमें बहर प्राय: खारिज होती है। <i><b>जन-गण-मन</b></i> की ग़ज़लें बहर की कसौटी पर भी खरी और निर्दोष हैं । कवि ने यद्यपि गिनी चुनी बहरें ही अपनाई हैं लेकिन वे यह एहसास कराने में समर्थ हैं कि कवि को बह्र और अरूज़ के अनुशासन की पूरी समझ है । जन गण मन की ग़ज़लें पढ़कर कुछ आलोचक यह आरोप लगा सकते हैं कि ये सपाट बयानी की शिकार हैं लेकिन उन्हें यह समझना होगा कि इन ग़ज़लों का विषय महबूबा के साथ गुफ़्तगू नहीं, अपितु ज़िंदगी की बेरहम सच्चाइयों का बयान करना है। कवि ने ग़ज़ल को मख़मली आरामगाह से बाहर निकालकर यथार्थ की खुरदरी ज़मीन से रूबरू कराया है। ऐसे में उनके पास कल्पना के घोड़े दौड़ाने का अवसर नहीं था। कबीर जैसी सीधी और खरी बात कहने के लिए भाषा भी कबीर जैसी ही होनी चाहिए और वैसे ही भाषा शैली कवि ने अपनाई है। विश्वास है कि यह संग्रह उन्हें अवश्य ही प्रतिष्ठा और प्रसिद्धि देगा।</p><p><b><i>डा. ब्रह्मजीत गौतम</i></b></p><p><b><i>साभार: गोलकोंडा दर्पण ,जनवरी 2006 हैदराबाद</i></b></p>जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-89267720549034610082021-02-15T05:51:00.000-08:002021-02-15T05:54:29.173-08:00अपने आप को आईना दिखाती गजलें <p> </p><p><br /></p><p> <b>अपने आप को आईना दिखाती गजलें </b></p><p><br /></p><p>हृदयेश मयंक</p><p><br /></p><p> निरंतर लयहीन होते हुए जीवनानुभवों को शब्दों में बांधना आज के दौर में निहायत कठिन हो गया है। ऐसे में यदि कुछ लोग छान्दस अभिव्यक्तियाँ करने में सक्षम है तो उन्हें बधाई दी जानी चाहिए । यदा-कदा हिंदी की लघु पत्रिकाओं में जब गीत नवगीत देखने पढ़ने को मिल जाता है तो बहुत अच्छा लगता है। हाँ इन दिनों ग़ज़लें बहुतायत में पढ़ने को मिलती हैं । अधिकांश कवि शायर एकरसता में ग़ज़लें लिखने का प्रयास करते हैं। प्राय: पढ़ते हुए लगता है कि इस तरह के शेर पहले पढ़े हुए हैं । छंद विधान या मीटर भले ही अलग हो पर कथ्य बहु प्रचलित दिखाई पड़ते हैं । ऐसे में यदि कोई अलग कथ्य, अलग मिज़ाज और अलग ज़मीन लिए हुए दिखाई पड़ता है तब वह अनायास ही पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। द्विजेंद्र द्विज एक ऐसा ही चर्चित नाम है जो हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में अपना एक अलग पाठक वर्ग तैयार किए हुए है। </p><p><br /></p><p> हाल ही में द्विजेंद्र द्विज की छप्पन जन-गण-मन में पढ़ने को मिलीं। ग़ज़ल लेखन में रुचि होने की वजह से एक बार बारगी सारी ग़ज़लें पढ़ गया। इन गजलों के बीच से गुज़रते हुए एक नये तरह के अनुभवों से साक्षात्कार हुआ । ये अनुभव एक अँग्रेज़ी के प्राध्यापक के ही नहीं है वरन लाखों-करोड़ों शोषित पीड़ित उस जनमन के हैं जिनके सपने उदास होकर टूट चुके हैं, आँखें सहमी हैं। वे सभी भौचक हैं कि यह क्या हो रहा है। समाज में जो कुछ घटित हो रहा है वह कल्पनातीत है। देखते ही देखते यह क्या से क्या हो गया है । सब कुछ हासिल कर लेने का एक पागलपन आज के युवा वर्ग में दिखलाई पड़ता है। मध्यवर्ग आज़ादी के बाद के छलावों से अभी उबर भी नहीं पाया था कि नये उदारीकरण व बाज़ारवाद ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा, कवि ने इस पीड़ा को एक जीवंत स्वर दिया है: </p><p><br /></p><p><i><b>सूरज डूबा है आँखों में आज है फिर सँवलाई शाम </b></i></p><p><i><b> सन्नाटे के शोर में सहमी बैठी है पथराई शाम </b></i></p><p><br /></p><p><i><b>साया साया बाँट रहा है दहशत घर-घर बस्ती में</b></i></p><p><i><b>सहमी आँखें टूटे सपने और एक पगलाई शाम(पृष्ठ-54)</b></i></p><p> इन ग़ज़लों में एक ओर जहाँ पहाड़ का सौंदर्य है वहीं उसकी बेज़ुबानी भी बयां होती है । प्राकृतिक संपदा के दोहन और उसकी ओर अनदेखी करने वाली व्यवस्था के प्रति कवि का आक्रोश दिखलाई पड़ता है । पर्यावरण की दुहाई के बावजूद प्राकृतिक स्थलों , नदियों , झीलों के आसपास कचरा प्लास्टिक थैलियों का उपहार पर्यटक धड़ल्ले से छोड़ते नजर आते हैं । विषय सड़कों के निर्माण का हो या फिर नये भवनों के निर्माण का, शहर सदैव पहाड़ों की ओर ही बढ़ते हैं । उन्हें काटना शहरी विकास की पहचान बन गई है। कवि मानो इस प्रवृत्ति पर अपना आक्रोश इस तरह व्यक्त करता है :</p><p><i><b>न भूलो तुमने ये ऊँचाइयाँ भी हमसे छीनी हैं </b></i></p><p><i><b>हमारा कद नहीं लेते तो आदम क़द नहीं होते(पृष्ठ-2)</b></i></p><p> इतिहास साक्षी है कि जब जब राजनीति दिशाहीन होती रही है तब-तब कवियों, लेखकों , कलमकारों ने राजनीति और समाज दोनों को दिशा देने का काम किया है । भले ही सदैव सत्ता व व्यवस्था की नजरों में तिरस्कृत रहे हों। आपातकाल का ख़ामियाज़ा कलमकारों ने जमकर भोगा था। फिर भी हम हैं तो हैं । बक़ौल द्विजेंद्र द्विज :</p><p><i><b>बंद कमरों के लिए ताजा हवा लिखते हैं हम</b></i></p><p><i><b>खिड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम (पृष्ठ-3)</b></i></p><p>उपभोक्तावाद ने एक नई तरह की दलाल संस्कृति को जन्म दिया है। जिस वर्ग को देखो वही चाटुकारिता, मक्कारी व दलाली में लिप्त दिखाई पड़ता है । झूठ और फ़रेब की एक नई दुनिया रच दी गई है। अनेक प्रलोभन आए दिन परोसे जा रहे हैं एक नया वर्ग रातों-रात अपनी अलग पहचान बना रहा है। उसी की नकल में सारे लोग व्यस्त हैं। वर्गीय चेतना लुप्त हो गई है परिणामत: आंदोलनकारी ताक़तें कमज़ोर हो गई हैं । सरकारी स्तर पर विकास का लॉलीपॉप दिखाया जा रहा है। मीडिया यक़ीन दिलाने में व्यस्त है। सच यह है कि सारी सुविधाएं राज महल की ओर जा रही हैं। पगडंडियों मानचित्र से ग़ायब हो रही हैं। एक सन्नाटा चारों और पसरा हुआ है आक्रोश करीब करीब ग़ायब है । शायर कहता है :</p><p><br /></p><p><i><b>तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को </b></i></p><p><i><b>अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता ?(पृष्ठ- 4) </b></i></p><p>द्विजेंद्र के यहां कुछ अलग, बिल्कुल अलग अभिव्यक्तियाँ हैं। एक दिलासा भी है कि जिन लोगों ने संघर्ष द्वारा कुछ हासिल किया है वे उजालों के बरक्स अँधेरों का साथ नहीं देंगे। काश ऐसा हो पाता। समाज में रातों-रात पनपे दोग़ले नवधनिकों ने नैतिकता के सारे मानदंडों को ताक पर रख दिया है। झूठ और लूट की बुनियाद पर विकास की जो इबारत लिखी जा रही है वह फ़रेब के सिवा कुछ भी नहीं ।</p><p> पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था एक नई गुलामी की ओर अग्रसर है। चंद लफ़्ज़ , चंद आक्रोश के स्वर चंद अशआर हमारी भावना हो सकते हैं पर यह पर्याप्त नहीं है साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए। फिर भी द्विजेंद्र को दाद दी जानी चाहिए इस तरह के शेरों के लिए:</p><p><br /></p><p> <i><b>अँधेरे बाँटना तो आपकी फितरत में शामिल है</b></i></p><p><i><b> उजालों का हमारे गीत में उल्लास लिक्खा है (पृष्ठ-9)</b></i></p><p> द्विजेंद्र के यहाँ सिर्फ़ आँखों देखा या कानो सुना नहीं है। वह नये जतन की भी बात करते हैं। व्यवस्था में बदलाव तभी संभव है जब एकजुट होकर संयुक्त प्रयास किए जाएं। द्विजेंद्र का यह शे'र उनके इसी ख़याल द्योतक है:</p><p><i><b>जब धुआं सांस की चौखट पर ठहर जाता है </b></i></p><p><i><b>तब हवाओं को बुलाने का जतन होता है (पृष्ठ-13)</b></i></p><p><i><b>सवाल ज़िन्दगी के टालना नहीं अच्छा </b></i></p><p><i><b>दो टूक बात करो फैसलों की भाषा में(पृष्ठ-14)</b></i></p><p> द्विजेंद्र राजनीति के गलियारों की भी खोज खबर लेते हैं । झूठे आश्वासनों, भाई भतीजावाद , जाति और मज़हबों पर आधारित राजनीति की चुटकी कुछ इस तरह से लेते हैं ;</p><p><i><b>वो आ गया है हमें अब तसल्लियाँ देगा</b></i></p><p><i><b>हमारा आग में जलता मकाँ नहीं देखा (पृष्ठ-19)</b></i></p><p>आज के इस दौर में जहाँ कुछ भी बेचा खरीदा जा सकता है, कलमें भी आसानी से बेची व ख़रीदी जा रही हैं । समाज के अन्य वर्गों की तरह यह वर्ग भी सत्तामुखी हो गया है । तमाम पुरस्कार व राजकीय सम्मानों की बन्दरबाँट हो रही है, ऐसे में ईमानदार लेखक उस सामान्य जन की तरह है जो तमाम सुविधाओं से वंचित व समय की चकाचौंध में अपने आप को छलित मान रहा है। कवि द्विज इन उपेक्षितों की तरफ़ से ठीक ही तो कह रहे हैं :</p><p><b><i>सर झुकाया, बंदगी की, देवता माना जिन्हें ,</i></b></p><p><b><i>वे रहे अक्सर हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़ (पृष्ठ-27)</i></b></p><p><b><i>आश्वासन भूख बेकारी घुटन धोखाधड़ी </i></b></p><p><b><i>हां यही सब तो दिया है आप के विश्वास ने (पृष्ठ 28)</i></b></p><p>कुल मिलाकर यह गजलें हमें हमारे समय से रूबरू कराती हैं । आईने की तरह हमें हमारा ही चेहरा दिखाती हैं । हिंदी और उर्दू ग़ज़लों को कुछ लोग बांट कर अलग-अलग देखना चाहते हैं। हमें समझ में नहीं आता कि वह वास्तव में क्या चाहते हैं। गीत व कविता की समृद्ध परंपरा में ग़ज़लें नए फूलों की तरह ऐसे ही नहीं उग आई हैं। उन्हें बड़े जतन से उगाया गया है। खून और पसीने से सींचा जा रहा है। इन ख़ूबसूरत अभिव्यक्तियों के लिए रचनाकारों को साधुवाद दिया जाना चाहिए न कि हिंदी व उर्दू को अलग-अलग बाँटकर देखने वाली राजनीति के सांप्रदायिक रुझान को स्वर दिया जाना चाहिए। यह न तो यह कविता के लिए अच्छा है और न ही हमारे समय के लिए । यह समय वैसे भी इतने खेमों में विभाजित है, इतनी दीवारें पहले ही खड़ी कर दी गई हैं, जिन्हें तोड़ना लगभग नामुमकिन सा दिखलाई पड़ता है। द्विजेंद्र द्विज जैसे कवि हिंदी और उर्दू के बीच सेतु का काम कर रहे हैं यह सुकून की बात है।</p><p> <b>समीक्षक: हृदयेश मयंक , सम्पादक : चिन्तन दिशा मुंबई</b></p><p>साभार: हिमाचल मित्र /आस्वाद और परख /शरद अंक द्वैमासिक अक्टूबर- 2007/ मार्च-2008</p>जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-30223075357864122342021-02-13T05:34:00.004-08:002021-02-15T05:55:53.379-08:00यही सड़क तो घर और आसमां छत है<b><b>यही सड़क तो घर और आसमां छत है<i></i></b><i></i></b> <div><br /></div><div>
<b>आज<i></i></b> के दौर में ग़ज़ल की बढ़ती लोकप्रियता ने हिन्दी कवियों को भी ग़ज़ल लेखन की ओर आकर्षित किया है, मगर हिन्दी में ग़ज़ल नाम से आजकल जो कुछ लिखा जा रहा है, उसे देख कर लग रहा है, जैसे हिन्दी ग़ज़ल का भविष्य बहुत अंधकारमय है, लेकिन द्विजेंद्र द्विज की ग़ज़लें इस तथ्य को झुठलाती हैं। द्विज वर्तमान पीढ़ी के एक ऐसे होनहार ग़ज़लकार हैं जिन्होंने ग़ज़ल के छंद शास्त्र को आत्मसात करने की साधना की है । इनकी ग़ज़लें ग़ज़ल की अवधारणा के अनुरूप भाषिक एवं साहित्यिक संस्कृति का निर्माण करती हैं। तलफ़्फ़ुज़ की जानकारी सही लफ्ज़ को को सही तरीके से इस्तेमाल करने की तमीज़ <b>जन- गण -मन</b> की ग़ज़लों की एक बेजोड़ ख़ासियत कही जा सकती है ।</div><div><br /></div><div> यहाँ यह बताना बेहद ज़रूरी लगता है कि उर्दू ग़ज़ल की समृद्ध परंपरा के परिपेक्ष्य में हिंदी में लिखी जा रही ग़ज़लों को उन उर्दू ग़ज़लों के साथ रखकर अगर देखा जाएगा तो हिंदी में ग़ज़ल की पहचान का संकट पैदा हो जाएगा। हिंदी में एक सफल गजलकार दुष्यंत कुमार हुए हैं, कुछ और दुष्यंत अभी पैदा होने बाकी हैं । हिंदी ग़ज़ल के पास एक विलक्षण समकालीन बोध है लेकिन शिल्प के लिए उर्दू की विरासत के साथ जुड़ना बाकी है। हिंदी के रचनाकारों के पास जागरूकता है, लगन है और उत्साह भी है। अतः इस आधार पर कहा जा सकता है की हिंदी ग़ज़ल का आने वाला कल काफी चमकदार और असरदार होगा इसमें कोई संदेह या सुलह नहीं ।
हिंदी गजल लेखन में अपनी पुख़्ता पहचान बनाने वाले हिमाचल के युवा कवि द्विजेंद्र द्विज का ग़ज़ल संग्रह <b>जन- गण -मन </b>मेरे हाथों में है । नए अंदाज में नए चिंतन का एक अद्वितीय दस्तावेज़ जहाँ विचार शैली में नई सोच के प्रमाण हैं, यथार्थ के आभास हैं और से और जिस में लेखकीय चुनौतियों को स्वीकारती हुई सामाजिक संपूर्णता की उपस्थितियाँ भी दर्ज है।
कवि को पढ़ने के बाद ऐसा कुछ महसूस हुआ, मानो गजलकार ने जीवन में जो कुछ जिया है और जिसे उसने स्वयं भोगा है, उसे उसने पूरी ईमानदारी के साथ अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। उनके लेखन में सर्वत्र सहजता और स्वाभाविकता विद्यमान है । <b>जन-गण-मन</b> सामान्यता इस तरह के नाम ग़ज़लों की पुस्तकों के नहीं होते मगर ग़ौर से देखें तो इस शीर्षक से बीज की गजलों के कथ्य और उनमें व्यक्त व्यथा और वेदना को समझा जा सकता है । द्विज की ग़ज़लियात अनेक पत्र-पत्रिकाओं में अभी भी दिखाई देती हैं और कवि सम्मेलनों व मुशायरों में अक्सर सुनाई पड़ती हैं और अब जन-गण-मन की मार्फ़त पाठक से रूबरू हैं। इन ग़ज़लों को पढ़ने से लगता है कि इनमें पारंपरिकता का रंग भी है और नयेपन की ख़ुशबू भी इनमें मौजूद है।
पुस्तक में संकलित गजलों का कैनवास बहुत व्यापक है । एक अभिव्यक्ति अथवा एक बिंब से लेखक समूचे देश और काल की बात कर जाता है । बेशक बड़े सादा और सरल शब्दों में मगर एक निहायत ही ख़ूबसूरत और शानदार अंदाज के साथ: <div><br /></div><div>
<b>तहजीब यह नई है इसको सलाम कहिए </b></div><div><b>रावण जो सामने हो उसको भी राम कहिए</b></div><div><b> </b></div><div><b>बदबू हो तेज़ फिर भी कहिये उसे न बदबू </b><div><b> </b><b> अब हो गया है शायद हमको जुकाम कहिए</b> </div><div><br /></div><div>
<b>द्विज सद्र बज़्म के हैं वो जो कहें सो बेहतर</b></div><div><b> बासी ग़ज़ल को उनकी ताजा कलाम कहिए (पृष्ठ 23)</b></div><div><b><br /></b></div><div><b>जन- गण -मन</b> की गजलों की एक अहम ख़ासियत यह भी है कि वह समय के सच के साथ साक्षात्कार करवाती हैं , आदमी को आदमियत का वास्ता वास्ता दिलवाती हैं और इंसानी जज़्बात का अहसास करवाती हैं:
आईना खुद को समझते हैं बहुत लोग यहां
आईना कौन है द्विज उनको दिखाने वाला
इसके अलावा द्विज के ग़ज़ल संसार में आम आदमी का दिल भी धड़कता हुआ महसूस किया जा सकता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज नहीं तो कल साहित्य में इन ग़ज़लों की मूल्यवत्ता को अवश्य पहचाना जाएगा । इनकी सराहना होगी और इन ग़ज़लों पर सार्थक सार्थक चर्चाएँ भी होंगी। द्विज की ग़ज़ल रचना कहीं थमी नहीं, रुकी नहीं, थकी नहीं और अभी भी पूरी मुस्तैदी के साथ, पूरी संजीदगी और बुलंद हौसलों के साथ अपनी राह पर गामज़न है।
अपनी ग़ज़ल में द्विज के पास अपने ख़ास जनवादी तेवर भी हैं, जो पाठक के दिल में उतर कर भारी हलचल पैदा करते हैं और वहां एक स्थाई असर छोड़ते हैं
और वहाँ एक स्थायी असर छोड़ते हैं। , एक बानगी देखिए: </div><div><br /></div><div>
<b>चलो फिर आज भी फ़ाक़े उबाल लेते हैं </b></div><div><b> अभी भी देर है फसलें बाहर आने में</b></div><div><b><br /></b></div><div><b> यही सड़क तो है घर और आसमां छत है </b></div><div><b> मिलेगा और भला क्या ग़रीबख़ाने में ( पृष्ठ 67) </b></div><div><br /></div><div>
प्रस्तुत संग्रह को निश्चय ही इसलिए पठनीय और संग्रहणीय माना जा सकता है कि इस में संकलित ग़ज़लों के भीतर अनुभव की सच्चाई के साथ साथ, कल्पना के सूक्ष्म तंतुओं की ख़ूबसूरत बनावट भी मौजूद है । इन में सामाजिक यथार्थ का का चित्रण है और राजनीतिक व्यंग्य के तेज़ धारदार नश्तर भी हैं।
ऐसी ही अपनी दूसरी ग़ज़लों में भी द्विज ने आम आदमी के दर्द को बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया है । उनकी व्यथाओं और वेदनाओं को पहचाना है और यथार्थ के धरातल पर उन्हें बड़ी संजीदगी के साथ समझने का प्रयास किया है। शायद यही वजह है कि उक्त संकलन की अधिकांश गजलें व्यक्ति के अंतस को उद्वेलित करती हैं। युगीन संदर्भों, सामाजिक विसंगतियों और माननीय विद्रूपताओं का इनमें यथार्थ चित्रण हुआ है। आम आदमी के संघर्ष और आक्रोश की पैरवी करते हुए द्विज कहते हैं: </div><div><br /></div><div>
<b>जिन परिंदों के परों को कुंद कर डाला गया </b></div><div><b> जी रहे हैं टीस लेकर आज भी निवास की (पृष्ठ 37)</b></div><div><br /></div><div><b></b>संकलन की इन गजलों में मानवीय संवेदना भावनाओं और विचारों को जिस बारीकी और काव्यगत कौशल के साथ अभिव्यक्त किया गया है निश्चय ही अतुलनीय है। वर्तमान सामाजिक विसंगतियों और मानवीय पीड़ाओं की टीस की अभिव्यक्ति ग़ज़लों को बेहद संवेदनशील और भावुकता युक्त बना देती है: </div><div><br /></div><div> <b>कहीं है खून के जोहड़ कहीं अंबार लाशों के</b></div><div><b> समझ अब यह नहीं आता ये किस मंजिल के रास्ते हैं (पृष्ठ 24)</b> </div><div><br /></div><div> द्विज के इस ग़ज़ल संग्रह की कुछ ग़ज़लें हिमाचल के पहाड़ों के दर्द से भी वाबस्ता हैं। इन गजलों में पर्वत के जीवन की पीड़ाओं के बयान की मौजूदगी में कवि स्वयं भी उस पीड़ा को असंपृक्त नहीं है। पहाड़ के उस दर्द को वह ग़ज़ल के शिल्प में डालकर बयान करता है।
कुल मिलाकर इन ग़ज़लों में मानवीय जीवन के विघटनकारी संदर्भों की व्याख्या है। आदमी की बेबसी, मजबूरी और घुटन का सपाट और बेबाक चित्रण है। संग्रह की लगभग सभी ग़ज़लें अंतस को उद्वेलित करती हैं। कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से द्विजेंद्र द्विज को एक श्रेष्ठ ग़ज़ल कार होने का हक़ हासिल है। हिंदी में ग़ज़ल उर्दू से और उर्दू में अरबी उत्स से निकल कर फारसी माध्यम से आई । ग़ज़ल के व्याकरण के मुताबिक द्विज की बह्रों पर पुख्ता पकड़ है , उन्हें नुक्ता की पहचान है वज़्न पर उसकी पकड़ है और शे'र में शेरियत पैदा करने की उसे महारत हासिल है ।
भाषिक संरचना के नज़रिए से द्विज के पास ग़ज़ल के लिए ऐसे अनेक शब्द है जिन्हें दूसरे कई ग़ज़लकार अमूमन अपनी ग़ज़ल में लाने से परहेज करते हैं जैसे उजाला, तम, शूल , सरोवर और शरण इत्यादि।
उर्दू की कठिन शब्दावली कहीं-कहीं कुछ उलझन पैदा ज़रूर कर देती है लेकिन फ़ुटनोट्स में उनके अर्थ दे दिए गए हैं जिनसे अर्थ समझने में पैदा हुई रुकावट दूर हो जाती है ।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि जन-गण-मन एक अच्छी ग़ज़लकार का अच्छा ग़ज़ल संग्रह है अतः पठनीय है , संग्रहणीय है । भविष्य के लिए यह संग्रह आश्वस्त करता है यह ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में द्विज आने वाले वक़्त में यक़ीनन अपने लिए एक बढ़िया, उम्दा और शानदार मुकाम हासिल कर लेंगे।</div><div><br /></div><div>
<b>प्रो. चतुर सिंह <i></i></b>
अंबिका निवास
हरिपुर मोहल्ला, नाहन
(हिमाचल प्रदेश) </div><div><br /></div><div>
<b>साभार: प्रतिबिम्ब: दैनिक दिव्य हिमाचल 1 जुलाई 2004</b></div></div></div>जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-52485482597241528132016-08-22T08:46:00.005-07:002016-08-22T09:29:17.982-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b><b>जन-गण-मन</b> पर नवनीत शर्मा: बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा</b><br />
<br />
<br />
द्विजेंद्र द्विज के '<b>जन- गण -मन</b>' से गुज़रना ऐसे अहसास से गुज़रना है जो रोज किसी भी व्यक्ति में बीत रहा होता है। हर अहसास को ग़ज़ल के हवाले करना और उसे बहुत शिद्दत के साथ निभाना द्विज के गज़ल़कार की पहली पहचान है। वह जितनी भाव और संवेदना से पगी ग़ज़लें कहते हैं, उतना ही सधा हुआ उनका शिल्प होता है।<br />
<br />
<div style="text-align: left;">
<b> जन-गण-मन</b> की ग़ज़लें मनोरंजन नहीं करतीं, आईना दिखाती हैं। मैं जब आईना कह रहा हूं तो इसका अर्थ शीशा नहीं है। ये ग़ज़लें कुरेदती हैं, अपने हिस्से के दाने मांगती हैं, जंगलों की भाषा में कटने वालों का चंबलों की भाषा में उगना दर्ज करती हैं, फैसलों की भाषा की मांग करती हैं। दरअस्ल द्विज का मुहावरा जन से उठता है और जन की फेरी लगा कर अपने साथ कई कुछ ऐसा ले आता है जो जन को समर्पित हो जाता है।<br />
<br />
<b>जन- गण- मन </b>की ग़ज़लों का मुहावरा किसी पुराने मील पत्थर पर नई स्याही का मुहावरा नहीं है, यह नए मील पत्थर का मुहावरा है जहां जिंदगी कमी़ज के उस टूटे हुए बटन के तौर पर दर्ज हो जाती है जिसे टांकने में उंगलियां</div>
बिंधती हैं। <br />
<br />
<br />
हिंदी ग़ज़ल के साथ एक विडंबना रही है कि उसे हिंदी संसार में दुष्यंत की ग़ज़लों के आलोक में देखा गया है और उर्दू वालों के लिए यह कोई विधा ही नहीं है। यह बहस पुरातन है और चल रही है लेकिन <b>जन- गण- मन</b> की ग़ज़लें इस संदर्भ में भी वह पुल हैं जिस पर दोनों पक्ष दूर नहीं हैं, शर्त यह है कि इस पुल पर चलने वाला जानबूझ कर लंगड़ा कर न चले। ग़ज़ल की यह चारित्रिक विशेषता है कि उसका हर शे'र स्वच्छंद हो सकता है, मुक्त हो सकता है। द्विज के यहां खूबी यह है कि हर शे'र से द्विज की जन के लिए प्रतिबद्धता झलकती है। यह प्रतिबद्धता यूं ही नहीं आती, इसके लिए अपनी सोच के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ता है।<br />
<br />
<br />
<b>जन- गण- मन</b> की ग़ज़लों में विषयानुगत साम्य उसकी खूबी बन कर उभरा है। वहां दर्द है, टीस है, हालात-ए-हाजि़रा पर तंज़ है, कहीं भावुकता है लेकिन द्विज का शायर घर से जब चलता है तो जानता है कि सफर में हर जगह सुंदर घने बरगद नहीं होते। चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझने का यह जो जज्बा है वही <b>जन- गण- मन </b>की ताकत है। जब भी बंद कमरों में ताज़ा हवा का इंतज़ाम करना हो, छान फटक, निर्मम पोंछा, ईमानदारी के साथ झाड़ू पहली शर्त होते हैं, और वे तमाम औजार इन ग़ज़लों में मिलते हैं। द्विज का पहाड़ से लेकर समंदर तक होना और बादलों में घिरना केवल अभिधात्मक नहीं है, यहां लक्षणा और व्यंजना का जादू भी चमत्कृत करता है। वक्रोक्ति के तीखे और नुकीले नश्तर भी इन गज़लों में पूरी धार के साथ हैं :<br />
<br />
<br />
<b>देख, ऐसे सवाल रहने दे</b><br />
<b>बेघरों का ख़याल रहने दे</b><br />
<b><br /></b>
<b>तेरी उनकी बराबरी कैसी</b><br />
<b>तू उन्हें तंग हाल रहने दे</b><br />
<b><br /></b>
<b>भूल जाएँ न तेरे बिन जीना</b><br />
<b>बस्तियों में वबाल रहने दे</b><br />
<br />
ये नश्तर जन-गण-मन की ग़ज़लों की धार को तय करते हैं। यह और बात है कि अब भी ग़ज़ल का एक मुआशरा परंपरागत शैली को ढो रहा है और जन की बात करने वाली ग़ज़लों को बकौल द्विज :<br />
<br />
<b>' जन-गण-मन के संवादों के संकट से जो लड़ती हैं</b><br />
<b>उन ग़ज़लों को कुछ लोगों ने पागल शोर बताया है'</b><br />
<br />
बताते हैं लेकिन सच यह है कि <b>जन- गण -मन </b>का सृजक खुली हवा के इंतज़ाम का पक्षधर है, काई को हटाने का मुरीद है, वह नहीं चाहता कि सीलन घर करे:<br />
<br />
<b>बंद कमरो के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम</b><br />
<b>खिड़कियां हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम</b><br />
<b><br /></b>
<br />
<br />
<b>- नवनीत शर्मा</b><br />
<b><br /></b>
<b>(युवा ग़ज़लकार, कवि। एक काव्य संग्रह 'ढूंढ़ना मुझे' प्रकाशित। ग़ज़ल</b><br />
<b>संग्रह प्रकाशनाधीन। संप्रति दैनिक जागरण में वरीय समाचार संपादक)</b></div>
जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-75842316198204717382016-08-19T07:02:00.000-07:002016-08-19T09:29:12.946-07:00 101 किताबें शायरी की ...में 'जन-गण-मन' पर प्रख्यात ग़ज़लकार व समीक्षक श्री नीरज गोस्वामी का आलेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>
<b> <b>101</b> किताबें शायरी की ...में 'जन-गण-मन' पर प्रख्यात ग़ज़लकार व समीक्षक श्री नीरज गोस्वामी</b><br />
<br />
<br />
<br />
<b></b>भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार...ये शब्द आजकल हर तरफ गूँज रहा है...सदियों से सहते आ रहे भ्रष्टाचार से अचानक लोग मुक्ति पाने के लिए तड़प रहे हैं...नारे लगा रहे हैं, अनशन कर रहे हैं, मुठ्ठियाँ हवा में लहरा रहे हैं...और भ्रष्टाचार है के वहीँ का वहीँ अपनी मजबूत स्तिथि का फायदा उठाते हुए मंद मंद मुस्कुरा रहा है. क्यूँ? जवाब के लिए मुंबई से प्रकाशित साहित्य पत्रिका <b>"कथा बिम्ब"</b> के ताज़ा अंक में <b>"श्री घनश्याम अग्रवाल" </b>जी की ये कविता पढ़ें:
<br />
<blockquote>
<span style="color: blue;"><b>"बेताल के सवाल पर</b> </span></blockquote>
<blockquote>
<span style="color: blue;"><b>विक्रम से लेकर अन्ना तक</b> </span></blockquote>
<blockquote>
<b><span style="color: blue;">सभी मौन हैं</span></b></blockquote>
<blockquote>
<b><span style="color: blue;">कि जब सारा देश</span></b></blockquote>
<blockquote>
<span style="color: blue;"><b>भ्रष्टाचार के खिलाफ है</b> </span></blockquote>
<blockquote>
<b><span style="color: blue;">तब साला भ्रष्टाचार करता कौन है?"</span></b></blockquote>
सीधी सी बात है भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले हम लोग ही भ्रष्टाचार को फ़ैलाने में सहयोग देते हैं.इसी बात को उस शायर ने जिसकी किताब का जिक्र हम करने जा रहे हैं किस खूबसूरत अंदाज़ में कहा है पढ़िए :
<br />
<blockquote>
<b>ये चाँद ख़ुद भी तो सूरज के दम से काइम हैं</b> </blockquote>
<blockquote>
<b> ये ख़ुद के बल पे कभी चांदनी नहीं देते
</b>
</blockquote>
गज़ब के तेवर लिए इस छोटी सी प्यारी सी शायरी की किताब <b>" जन गण मन "</b> के लेखक हैं ब्लॉग जगत के अति प्रिय, स्थापित युवा शायर जनाब "द्विजेन्द्र द्विज" साहब. द्विजेन्द्र जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं ,ब्लॉग जगत के ग़ज़ल प्रेमी इस नाम से बखूबी परिचित हैं. ब्लॉग पर उनकी सक्रियता अधिक नहीं रहती लेकिन वो जब भी अपनी ग़ज़लों से रूबरू होने का मौका देते हैं अपने पाठकों को चौंका देते हैं.
<br />
<blockquote>
<b>अँधेरे चंद लोगों का अगर मकसद नहीं होते</b> </blockquote>
<blockquote>
<b>यहां के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते</b></blockquote>
<br />
<blockquote>
<b>
फरेबों की कहानी है तुम्हारे मापदंडों में</b></blockquote>
<b>वगरना हर जगह 'बौने' कभी 'अंगद' नहीं होते</b><br />
<br />
<blockquote>
<b>
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा</b> </blockquote>
<blockquote>
<b>सफ़र में हर जगह सुन्दर घने बरगद नहीं होते</b></blockquote>
बौनों के अंगद होने की बात कहने वाला शायर किस कोटि का होगा ये पता लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है. ऐसी सोच और ऐसे अशआर यक़ीनन शायर के अन्दर धड़कते गुस्से के लावे को बाहर लाते हैं. द्विज जी की बेहतरीन ग़ज़लें रिवायती ग़ज़लों की श्रेणी में नहीं आतीं, उनकी ग़ज़लों में महबूबा के हुस्न और उसकी अदाओं में घिरे इंसान का चित्रण नहीं है उनकी ग़ज़लों में आम इंसान की हताशा, दुखी जन के प्रति संवेदनाएं और समाज के सड़े गले नियमों के खिलाफ गुस्सा झलकता है. द्विज जी अपनी ग़ज़लों से आपको झकझोर कर जगाते हैं:
<br />
<blockquote>
<b>अगर इस देश में ही देश के दुश्मन नहीं होते
</b></blockquote>
<b>लुटेरा ले के बाहर से कभी लश्कर नहीं आता</b><br />
<blockquote>
<b>
जो खुद को बेचने की फितरतें हावी नहीं होतीं</b></blockquote>
<blockquote>
<b>हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता</b></blockquote>
<blockquote>
<b>
अगर जुल्मों से लड़ने की कोई कोशिश रही होती</b> </blockquote>
<blockquote>
<b>हमारे दर पे जुल्मों का कोई मंज़र नहीं आता</b></blockquote>
10 अक्तूबर,1962. को जन्में द्विज जी, बेहतरीन ग़ज़ल कहने की उस पारिवारिक परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं जिसकी नींव उनके स्वर्गीय पिता श्री "सागर पालमपुरी" जी ने डाली थी. श्री ‘सागर पालमपुरी’ जी का नाम आज भी हिमाचल के साहित्यिक हलकों बहुत आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है. कालेज के दिनों से ही वो अपने पिता के सानिध्य में ऐसी ग़ज़लें कहने लगे जिसे सुन कर उस्ताद शायर भी दंग हो जाया करते थे. तारीफों की हवा से अक्सर इंसान गुब्बारे की तरह अपनी ज़मीन को छोड़ कर ऊपर उड़ने लगते हैं और एक दिन अचानक धरातल पर आ गिरते हैं, लेकिन द्विज जी के साथ ऐसा नहीं हुआ. प्रशंसा की सीढियों से उन्होंने नयी ऊँचाइयाँ छूने की कोशिशें की:
<br />
<blockquote>
<b>कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में</b> </blockquote>
<blockquote>
<b>उगे हैं फिर वही तो चम्बलों की भाषा में</b></blockquote>
<blockquote>
<b>
सवाल ज़िन्दगी के टालना नहीं अच्छा</b> </blockquote>
<blockquote>
<b>
दो टूक बात करो, फ़ैसलों की भाषा में</b> </blockquote>
<blockquote>
<b>
फ़रिश्ता है कहीं अब भी जो बात करता है</b> </blockquote>
<blockquote>
<b>कड़कती धूप तले, पीपलों की भाषा में</b></blockquote>
<b>हज़ार दर्द सहो, लाख सख्तियां झेलो</b><br />
<b>भरो न आह मगर, घायलों की भाषा में</b><br />
<b><br /></b>
द्विज जी चूँकि हिमाचल से हैं इसलिए उनकी ग़ज़लों में पहाड़ नदियाँ बादल झरने रूमानी अंदाज़ में नहीं बल्कि ज़िन्दगी की हकीकत बन कर कर उभरे हैं. इस संग्रह की संक्षिप्त सी भूमिका में मशहूर ग़ज़ल कार जनाब 'ज़हीर कुरैशी' जी ने क्या खूब लिखा है के " द्विज जी की ग़ज़लों में व्यक्त उनका पहाड़ हिमाचल तक सीमित नहीं है. जाति मज़हब रंग नस्लों और फिरकापरस्ती की सियासत के खिलाफ भी उनका ग़ज़लकार तन कर खड़ा है. पहाड़ की कठिन ज़िन्दगी में खून-पसीने से सींचे गए खेतों की उपज का बंटवारा ठीक-ठाक होने की चेतावनी भी उनके शेरों में है." आप खुद पढ़ें:
<br />
<blockquote>
<b>बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम</b></blockquote>
<blockquote>
<b>
खिड़कियाँ हो हर तरफ ऐसी दुआ लिखते हैं हम</b></blockquote>
<blockquote>
<b>
आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया</b></blockquote>
<b>ऐसी साजिश के लिए हर बद्दुआ लिखते हैं हम</b><br />
<br />
<blockquote>
<b>
रौशनी का नाम दे कर आपने बाँटे हैं जो</b></blockquote>
<blockquote>
<b>
उन अंधेरों को कुचलता हौसला लिखते हैं हम</b>
</blockquote>
अँग्रेज़ी साहित्य में सनातकोत्तर डिग्री प्राप्त द्विज जी राजकीय पॉलीटेक्निक, सुन्दर नगर , जिला मंडी में विभागाध्यक्ष अनुप्रयुक्त विज्ञान एवं मानविकी के पद पर कार्य रत हैं , ग़ज़ल लेखन उनका शौक भी है और समाज में हो रही असंगतियों को देख मन के अन्दर उठते लावे को बाहर लाने का ज़रिया भी. उनकी ग़ज़लें आपसे दार्शनिक अंदाज़ में बातें नहीं करती बल्कि सीधे सपाट शब्दों में अपनी बात कहती हैं और अपना पक्ष प्रस्तुत करती हैं:
<br />
<blockquote>
<b>आपके अंदाज़, हमसे पूछिए तो मोम हैं
</b></blockquote>
<b>अपनी सुविधा के सभी सांचों में ढल जाते हैं आप</b><br />
<br />
<blockquote>
<b>
कुश्तियां, खेलों के चस्के आपके भी खूब हैं
</b></blockquote>
<b>शेर बकरी को पटकता है बहल जाते हैं आप</b><br />
<br />
<blockquote>
<b>
सिद्धियाँ मिलने पे जैसे मन्त्र साधक मस्त हों</b></blockquote>
<b>शहर में होते हैं दंगे, फूल फल जाते हैं आप</b><br />
<b><br /></b>
"जन-गण-मन" गागर में सागर को चरितार्थ करती हुई छोटी सी किताब है जिसमें द्विज जी की लगभग साठ ग़ज़लें संगृहीत हैं. इसे आप श्री सतपाल ख्याल जी के ब्लॉग "आज की ग़ज़ल" या फिर स्वयं द्विज जी के ब्लॉग "द्विजेन्द्र ‘द्विज’" पर आन लाइन भी पढ़ सकते हैं. लेकिन साहब आन लाइन पढने में वो मज़ा नहीं आता जो मज़ा किताब को हाथ में उठाकर पढने में आता है. हालाँकि इस किताब को 'दुष्यंत-देवांश-प्रकाशन, अशोक लॉज, मारण्डा, हिमाचल प्रदेश द्वारा प्रकाशित किया गया है लेकिन इसे प्राप्त करने का आसान तरीका है द्विज जी को इस संग्रह के लिए उनके मोबाइल +919418465008 पर बात कर बधाई देते हुए उनसे किताब की प्राप्ति के लिए आग्रह करना।
मेरा सौभाग्य है के मैं पिछले पांच सालों से उनसे संपर्क में हूँ .ये संपर्क अभी तक आभासी है याने सिर्फ मोबाइल पर ही उनसे बात होती है लेकिन मुझे उनसे बात करके कभी लगा ही नहीं कि मैं इनसे अभी तक नहीं मिला हूँ. मैंने ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में उनसे बहुत कुछ सीखा है और सीख रहा हूँ. इस क्षेत्र में आदरणीय पंकज सुबीर जी और प्राण साहब के साथ साथ वो भी मेरे गुरु हैं. अपनी सोच में एकदम स्पष्ट और जीवन के प्रति सकारात्मक विचार रखने वाले इस शख्श की प्रशंशा के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं. मैं दुआ करता हूँ के वो इसी तरह अपनी शायरी से हमें हमारे जीवन में फैले अंधियारों से लड़ने की ताकत देते रहें:
<br />
<blockquote>
<b>रास्तों पर 'ठीक शब्दों' के</b> </blockquote>
<blockquote>
<b>दनदनाती ' वर्जनाएं ' हैं</b></blockquote>
<b>मूक जब 'संवेदनाएं' हैं</b><br />
<b>सामने 'संभावनाएं' हैं </b><br />
<b><br /></b>
<b> आदमी के रक्त में पलतीं </b><br />
<b> आज भी 'आदिम-प्रथाएं' हैं</b><br />
<b><br /></b>
<b> ये मनोरंजन नहीं करतीं</b><br />
<b> क्यूंकि ये ग़ज़लें 'व्यथाएं' हैं</b></div>
जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-65479363542100759152012-02-19T00:32:00.000-08:002012-02-19T00:52:02.873-08:00पहाड़ी कवि की पुकार- ‘जन-गण-मन’द्विजेंद्र द्विज के<a href="http://http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%A8-%E0%A4%97%E0%A4%A3-%E0%A4%AE%E0%A4%A8_/_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%27%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%27"> “जन- गण - मन”</a> पर प्रख्यात समीक्षक <span style="font-weight:bold;">श्री चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद </span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">पहाड़ी कवि की पुकार- ‘जन-गण-मन’</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">“ये मनोरंजन नहीं करती<br />क्योंकि ये ग़ज़लें व्यथाएँ हैं"</span><br /><br />हिन्दी ग़ज़ल की यात्रा अमीर ख़ुसरो से शुरू होते हुए भारतेन्दु, बद्री नारायण चौधरी, प्रताप नारायण मिश्र, नाथू राम शर्मा ‘शंकर’, जयशंकर प्रसाद,निराला, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन,,जानकी वल्लभ शास्त्री, बलबीर सिंह ‘रंग’ आदि अनगिनत कवियों की कलम से रवाँ होती गई और आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल की दूसरी पारी दुष्यन्त कुमार की हुई। आज की हिन्दी ग़ज़ल उर्दू के हुस्नो-इश्क़ और जामो-मीना को छोड़कर काफ़ी आगे निकल गई है।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">“ जो हुस्नो-इश्क़ की वादी से जा सके आगे<br />ख़याले-शायरी को वो उड़ान दीजिएगा । "<br /></span><br />आजकी ग़ज़ल मानव की समस्याओं और संवेदनाओं को बयाँ करती है। कभी-कभी इन्हीं पहलुओं पर अपने तेवर दिखाते हुए शायरी ‘तेवरी’ का रूप भी धर लेती है ।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">‘मत बातें दरबारी कर<br />सीधी चोट करारी कर’</span><br /><br />द्विजेंद्र द्विज आजके ऐसे ग़ज़लगो हैं जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुँचते रहे हैं। अब उनक पहला ग़ज़ल संग्रह “जन-गण-मन” पाठकों के बीच आया है जिसमें छप्पन ग़ज़लें संकलित हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">“मन ख़ाली हैं<br />लब जन-गण-मन’’<br /><br />``निर्वासित है<br />क्यों जन-गण-मन"</span><br /><br />‘द्विज’ वो पहाड़ी कवि हैं जिन्होंने अपने जीवन की चौथाई सदी मारंडा (पालमपुर) रोहड़ू ,हमीरपुर, कांगड़ा और धर्मशाला जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में गुज़ार दी । यद्यपि वे अ~म्ग्रेज़ी के प्राध्यापक हैं परन्तु अपने जज़्बात को बयाँ करने के लिए उन्होंने उन्होंने ग़ज़ल को अपना माध्यम बनाया है।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">“ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़<br />लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़ ”</span><br /><br />लेकिन जब इन सुन्दर मेहरबान पहाड़ों को मानव प्रदूषित करता है,तब भी वे अपने सत्कार की परंपरा को नहीं भूलते ।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">“कचरा व प्लास्टिक मिले उपहार में इन्हें<br />सैलानियो के ‘द्विज’ हुए हैं मेज़बाँ पहाड़”<br /></span><br /><br />आजका कोई भी साहित्यकार जीवन के गिरते मूल्यों पर चिंता व्यक्त करने से नहीं चूकता। ‘द्विज’ ने भी “जन-गण-मन” में समाज के पतन पर चिंता व्यक्त की है। यद्यपि इस मुद्दे पर हर कोई बात करता है परंतु इसे अमली जामा कौन पहनाएगा?<br /><br /><span style="font-weight:bold;">“तहज़ीब यह नई है इसको सलाम कहिये<br />रावण जो सामने हों उनको भी राम कहिये”<br /><br /><br />“बहस के मुद्दओं में मौलवी थे पंडित थे<br />वहाँ ‘द्विज’ आदमी का ही निशाँ नहीं देखा”<br /></span><br /><br /><br />जिन्हें सरपरस्त समझकर देश की बागडोर हम थमाते हैं वे भी झूठे आश्वासन दे कर अपनी राजनीति चलाते हैं।<br /><br />“आश्वासन, भूख,बेकारी, घुटन, धोखाधड़ी<br />हाँ, यही सब तो दिया है आपके विश्वास ने”<br /><br />राजनीति का एक और शस्त्र बन गया है मज़हब,जिसके कारन न सिर्फ़ देश का बँटवारा हुआ, बल्कि मासूम लोगों का ख़ून भी बस्तियों में बह रहा है।<br /><br />“फिर से ख़ंजर थाम लेंगी हँसती-गाती बस्तियाँ<br />जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा”<br /><br />यदि कुछ समाज सेवी इन दंगों का हल निकालना भी चाहें तो राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले इसे ख़त्म नहीं होने देते हैं।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">“जमीं हैं हर गली में ख़ून की देखो कई पर्तें<br />मगर दंगे कभी इनको तुम्हें धोने नहीं देंगे”<br /><br />“ नीयत न साफ़ और थी न जब ज़बान साफ़<br />होता भी कैसे आपका कोई बयान साफ़”<br /></span><br />देश के लोग ग़रीबी की चक्की में पिस रहे हैं रोटी, कपड़ा और मकान पर नेता रात-दिन भाषण देते हैं परन्त आज भी कवि उनसे यही माँग करता है:<br /><br />‘‘जो छत हमारे लिए भी कोई दिला पाए<br />हमें भी ऐसा कोई संविधान दीजिएगा”<br /><br />‘द्विज’ ने साहित्य में फैल रहे “प्रदूषण" पर भी चिंता व्यक्त की है। जिस प्रकार शिक्षा क्षेत्र में राजनीति की जा रही है या पुरस्कारों की होड़ में उठा-पटक चल रही है, उसपर भी ‘द्विज’ ने कलम चलाई है ।<br /><br /><span style="font-weight:bold;">“पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए<br />ख़ास जो संदर्भ थे केवल वो झुठलाए गए"<br /><br />हुनर तो था ही नहीं उनमें जी हुज़ूरी का<br />इसीलिए तो ख़िताबों से दूर रक्खे गए”<br /></span><br />द्विजेंद्र ‘द्विज’ उन ग़ज़लकारों में से एक हैं जिन्होंने दुष्यन्त की लीक पर चलते हुए हिन्दी और उर्दू को एक सूत्र में बाँधा है। ज़हीर क़ुरेशी ने इस पुस्तक की भूमिका में सही कहा है :<br /><br />“भाषाई स्तर पर द्विजेंद्र ‘द्विज’ दुष्यन्त कुल के ग़ज़लकार हैं, हिन्दी और उर्दू के बीच संतुलन कायम करने वाले । द्विजेंद्र की ग़ज़लों का भाषाई लहजा सादा और साफ़ है....जहाँ तक शेरों में पसरी गई विषय वस्तु का सवाल है तो ‘द्विज’ का कैन्वास काफ़ी विस्तृत है।”<br /><br />जन-गन-मन के अशआर पढ़ते हुए पाठक का एक-एक शे‘र पर दाद देने को मन चाहेगा । आशा है , इस ग़ज़लकार के प्रथम संकलन को वही सम्मान मिलेगा जो किसी भी मंझे हुए शायर के संग्रह को मिलता है।<br />---- <span style="font-weight:bold;">चन्द्र मौलेश्वर प्रसाद<br />1-8-28, यशवंत भवन, अलवाल,<br />सिकन्दराबाद -500010(आं.प्र.)</span><br /> <br /><span style="font-weight:bold;">साभार:</span><br /><br />सहकारी युग (साप्ताहिक) दिनांक 25 अक्तूबर,2004 (संपादक नीलम गुप्ता, B-ब्लॉक,26/27,अब्बास मार्केट, रामपुर-244901)जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-22025607171798918302012-02-17T07:34:00.000-08:002012-02-17T07:36:21.158-08:00जन-गण-मन की तीसरी ग़ज़ल<span style="font-weight:bold;">जन-गण-मन की तीसरी ग़ज़ल<br /><br />बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम<br />खिड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम<br /><br />आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया<br />ऐसी साज़िश के लिए हर बद्दुआ लिखते हैं हम<br /><br />जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में<br />उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम<br /><br />रोशनी का नाम देकर आपने बाँटे हैं जो<br />उन अँधेरों को कुचलता हौसला लिखते हैं हम<br /><br />ला सके सबको बराबर मंज़िलों के रास्ते<br />हर क़दम पर एक ऐसा क़ाफ़िला लिखते हैं हम<br /><br />सादर <br />द्विजेन्द्र द्विज</span>जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-80103174550645912942011-10-14T19:43:00.000-07:002011-10-15T02:24:15.098-07:00जन-गण -मन की दूसरी ग़ज़लआदरणीय व प्रिय मित्रो!<br /><br />बहुत दिनों से नई पोस्ट नहीं लगा पाया था.<br /><br />संकलन <strong>जन-गण-मन</strong> की दूसरी ग़ज़ल प्रस्तुत है.<br /><br /><br /><br />अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते<br />यहाँ के लोग अपने-आप में सरहद नहीं होते<br /><br />न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं <br />हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते<br /><br />फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में<br />वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते<br /><br />तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी भला कब तक<br />वहाँ पर भी बसेरे हैं जहाँ गुंबद नहीं होते<br /><br />चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा<br />सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नहीं होते<br /><br />सादर<br />द्विजेन्द्र द्विजजन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-40389651375456427322010-06-27T09:51:00.000-07:002010-06-27T09:56:42.217-07:00ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़<span style="font-weight:bold;">ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़<br />लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़<br /><br />हैं तो बुलन्द हौसलों के तर्जुमाँ पहाड़<br />पर बेबसी के भी बने हैं कारवाँ पहाड़<br /><br />थी मौसमों की मार तो बेशक बडी शदीद<br />अब तक बने रहे हैं मगर सख़्त-जाँ पहाड़<br /><br />सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ<br />ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़<br /><br />पत्थर-सलेट में लुटा कर अस्थियाँ तमाम<br />मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़<br /><br />नदियों,सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद<br />देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़<br /><br />वो तो रहेगा खोद कर उनकी जड़ें तमाम<br />बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़<br /><br />सीनों से इनके बिजलियाँ,सड़कें गुज़र गईं<br />वन, जीव, जन्तु, बर्फ़, हवा, अब कहाँ पहाड़<br /><br />कचरा,कबाड़,प्लास्टिक उपहार में मिले<br />सैलानियों के ‘द्विज’, हुए हैं मेज़बाँ पहाड़<br /></span>जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com19tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-43800160307478804022010-06-22T03:46:00.000-07:002010-06-22T04:53:29.608-07:00एक सजग रचनाकार की संघर्ष चेतना का प्रतिरोधात्मक प्रतिज्ञापत्र<span style="font-weight:bold;">द्विज के<a href="http://http://www.kavitakosh.org/kk/index.php?title=%E0%A4%9C%E0%A4%A8-%E0%A4%97%E0%A4%A3-%E0%A4%AE%E0%A4%A8_/_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_'%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%9C'"> ‘जन-गण-मन’</a> पर प्रख्यात समालोचक नचिकेता की समीक्षा</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;"> ‘जन-गण-मन‘</span> द्विजेन्द्र द्विज की बेहतरीन छ्प्पन गज़लों का पहला संग्रह है। द्विजेन्द्र ‘द्विज’ उन गज़लकारों में से महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं जिन्हें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के जरिए इस पहले गज़ल संग्रह के प्रकाशन के पूर्व ही स्थापित ग़ज़लकार का दर्ज़ा मिल चुका है। दरअसल द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लों की बनावट और बुनावट अपने समकालीनों से बिल्कुल अलहदा है। द्विज के पास समकालीन यथार्थ की बहुस्तरीय संश्लिष्टता सार्थक अभिव्यक्ति देने में सक्षम भाषा है,जिसमें बिम्ब,प्रतीक और संकेतों के समन्वय और सामंजस्य की सघनता है। इसके बावजूद कहीं भी अमूर्त्तनता या अर्थहीनता का आभास नहीं मिलता।<br /><br />द्विजेन्द्र ‘द्विज’ के पास अपने समय और समाज के अंतर्विरोधों की भीतरी परतों को भी एक्स-रे की तरह परखने वाली सूक्षम अंतर्दृष्टि है। अपने समय की लहुलुहान हकीकत को उसमें संपूर्ण जटिलता में समग्रता के साथ व्यक्त करने की चुनौती स्वीकार करने में द्विजेन्द्र द्विज की गज़लों को कोई हिचक महसूस नहीं होती। परिणामत: उनकी ग़ज़लों से व्यापक मध्यवर्गीय जन-जीवन की त्रासदियों सामाजिक अंतर्विरोधों,राजनीतिक विसंगतियों आर्थिक असमानताओं मूल्य विघटन और सांस्कृतिक अवमूल्यन के कारणों को परखने में कोई चूक नहीं होती:<br /><br /><span style="font-weight:bold;">"आँखों पर बाँधी गईं ऐसी अँधेरी पट्टियाँ<br />घाटियों के सब सुनहरे दृश्य धुँधलाए गए<br /><br />घाट था सब के लिए पर फिर भी जाने क्यों वहाँ<br />कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन -चुन के नहलाए गए<br /><br />जब कहीं ख़तरा नहीं था आसमाँ भी साफ़ था<br />फिर परिंदे क्यों वहाँ सहमे हुए पाए गए"<br /></span><br />अथवा<br /><br /><span style="font-weight:bold;">"सर से पाँवों तक अब भी हम भीगे हैं<br />कैसे छप्पर, कैसे उनके छाते हैं<br /><br />सूखे में बरसात की बातें करते हैं<br />फिर भी पानी से वो क्यों डर जाते हैं"</span><br /><br />रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हम रोज़ देखते हैं कि हमारे सियासी रहनुमा हमें मुंगेरी लाल के हसीन सपने दिखला कर बहलाया करते हैं और हमें उनके शोषण के नापाक इरादों का पता तब चलता है जब हमारी साँसों में ताज़ा हवा की जगह कड़वा धुआँ भर जाता है। शोषक शासक वर्ग की इन रेशमी मगर ख़तरनाक हरकतों को द्विज की ग़ज़लें बेलौस ढंग से बेनक़ाब करती हैं:<br /><br /><span style="font-weight:bold;">"चंद ख्वाबों को हक़ीक़त में बदलने के लिए<br />कितने ख़्वाबों का वहाँ ग़बन होता है<br /><br />जब धुआँ साँस की चौखट पे ठहर जाता है<br />तब हवाओं को बुलाने का जतन होता है<br /></span><br />या<br /><br /><span style="font-weight:bold;">तुम्हारे आँसुओं को सोख लेगी आग दहशत की<br />तुम्हें पत्थर बना देंगे तुम्हें रोने नहीं देंगे<br /><br />घड़ी भर के लिए जो नींद मानों मोल भी ले ली<br />भयानक ख़वाब तुमको चैन से सोने नहीं देंगे ."<br /></span><br />आज की उपभोक्तावादी संस्कृति का सबसे ज़्यादा आक्रमण संवेदना पर ही हुआ है।संवेदन शून्य आत्मपरकता और स्वार्थपरकता की ऐसी भयानक आँधी चली है कि पूरी सदी ही पथरा गई-सी दृष्टिगोचर होती है। संवेदनहीन, स्पंदनविहीन इस अमानवीय यातनागृह से छुटकारा पाने की छटपटाहट द्विजेन्द्र द्विज की इन ग़ज़लों में शिद्दत के साथ और मार्मिक ढंग से मुखरित हुई है:<br /><br /><span style="font-weight:bold;">"ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ <br />यह सदी पत्थर-सी है, संवेदनाओं के ख़िलाफ़<br /><br />ठीक भी होता नहीं मर भी नहीं पाता मरीज़<br />कीजिए कुछ तो दवा ऐसी दवाओं के ख़िलाफ़"</span><br /><br />निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि द्विजेन्द्र द्विज मौजूदा दौर के सामाजिक यथार्थ और उसके अंतर्विरोधों की भीतरी परतों को सिर्फ़ उघारते भर नहीं अपितु नई समाज रचना के लिए संघर्षशील आवाम को एकजुट संघर्ष के वास्ते लामबद्ध करते हैं।इस लिए इनकी ग़ज़लों में ऐसा बहुत कुछ नवीन और मौलिक है जो केवल नएपन के इज़हार के लिए नहीं बल्कि अपने सामाजिक अनुभव को राजनीतिक विमर्श की शक्ल देने के सार्थक प्रयास का नतीजा मालूम होता है। अतएव द्विजेन्द्र द्विज की सार्थक ग़ज़लें अपने पाठकों की संवेदना के कोमल तंतुओं को केवल सहलाती, गुदगुदाती और रोमांचित ही नहीं करतीं प्रत्युत बेचैन भी करती हैं:<br /><br /><span style="font-weight:bold;">" जिया झुका के जो सर ज़िल्लतों में, ज़ुल्मों में<br />न हो वो क़त्ल कोई बेज़ुबाँ नहीं देखा<br /><br />पिलाएगा तुझे पानी जो तेरे घर आकर<br />अभी किसी ने भी ऐसा कुआँ नहीं देखा"<br /></span><br />अथवा<br /><br /><span style="font-weight:bold;">"धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे<br />बैठ गए हैं जमकर जो हिमपात हमारी यादों में<br /><br />सह जाने का चुप रहने का मतलब यह बिल्कुल भी नहीं<br />पलता नहीं है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में"<br /></span><br />द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लें, दरहक़ीक़त,समकालीन सामाजिक राजनीतिक वातावरण पर एक सजग रचनाकार की संघर्ष चेतना का प्रतिरोधात्मक प्रतिज्ञापत्र हैं \ कहीं यह आईना दिखाती हैं तो कहीं मुँह चिढ़ाती प्रतीत होती हैं कहीं पीड़ा है तो कहीं आक्रोश भी है। ये ग़ज़लें कही चेतावनी देती हैं तो कहीं चुनौती। कहीं अपील करती महसूस होती हैं तो कहीं संघर्ष का आह्वान करती।कहीं फटकार है तो कहीं दिलासा। कहीं सलाह है तो कहीं संवाद। कहीं रचनाकार का आत्मकथ्य नज़र आती हैं तो कहीं वक्तव्य भी। इन्हीं द्वन्द्वात्मक अंतर्विरोधों/मनस्थितियों की खुरदरी ज़मीन पर खड़ी हो कर द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लें अपने समय और समाज को और अधिक मनवीय बनाने के निमित्त संघर्षरत हैं ख़ूबसूरत अंदाज़े- बयाँ में नुमाया द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लों की वैचारिक अंतर्वस्तु जितनी पुख़्ता और मज़बूत है, प्रभावी अंतर्वस्तु फाँक भी उतनी ही अधिक चौड़ी है।<br /><br /><br /><span style="font-style:italic;">साभार: कृष्णानंद कृष्ण के संपादन में पटना से प्रकाशित पत्रिका पुन: (अंक-१५, नवम्बर-२००३)</span>जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-44867007630126030832010-06-03T10:21:00.000-07:002010-06-03T10:35:45.145-07:00सच्चे गीत उल्लास केद्विजेन्द्र ‘द्विज’ के ग़ज़ल संकलन<span style="font-weight:bold;"> जन-गण-मन </span>पर डा० आत्मा राम (प्रख्यात समालोचक, शिक्षाविद, व्यंग्यकार,तथा पूर्व शिक्षा निदेशक हिमाचल प्रदेश)<br /><br /><br />द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लें सरल भाषा में तीखे और कारगर भाषा में सीधे तीर के समान हैं जो अपने निशाने पर निरन्तर और बहुत समय तक पहुँचती और प्रहार करती हैं. ‘जन-गण-मन’ में संग्रहीत ५६ ग़ज़लें मानों ५६ अनूठे पकवानों की महक ,रस,स्वाद से ओतप्रोत हैं. हर ग़ज़ल अपने अंदाज़ में है और आज के संसार का, उसकी गतिविधियों और सोच का सारांश प्रस्तुत करती हैं.<br /><br />हास्य-व्यंग्य एक स्वस्थ तथा स्थाई उज्ज्वलता की पृष्ट -भूमि में किया गया है जिसमें न तो किसी प्रकार की दुरूहता या रिक्तता का अंशमात्र है, और न ही मज़ाक़ की शुष्कता और उदण्डता का आभास है - क्योंकि जैसे कि महात्मा मीर दाद कहते हैं - "मज़ाक़ ने मज़ाक़ उड़ाने वालों का सदा मज़ाक़ उड़ाया है." मानो कवि अपने आप और अन्य सभी को मीठी भाषा में उपदेश कर रहा हो:<br /><br />"मत बातें दरबारी कर<br />सीधी चोट करारी कर"<br />इन गुणों के कारण "जन-गण-मन" की प्रत्येक ग़ज़ल को बार-बार पढ़ने को दिल करता है.एक ही लय में न होने के कारण इनमें विविधता है,अद्भुत रस है. आम आदमी केअनुभवों,उसकी आवाज़ के, उसके मन में उठते सवालों को अति सुन्दर ,सरस और सरल् भाषा में व्यक्त किया गया है .आजके ज़माने में क्या बुरा-भला हो रहा है, कैसे उसके विरुद्ध आवाज़ उठानी है,इसकी ओर संकेत करते कवि साफ़ लिखता है:<br /><br /><blockquote>"बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम<br />खिड़कियाँ हो हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम"<br /></blockquote><br />इसी तरह बड़ी गहरी चोट की है कवि ने :<br /><br /><blockquote>"अँधेरे चन्द लोगों का अगर मकसद नहीं होते<br />यहाँ के लोग अपनेआप में सरहद नहीं होते"<br /></blockquote><br />इस शेर में शक्ति है, दिशा है, तीखापन है. पढ़कर व्यक्ति अपने आपको, अन्य को झंझोड़ने लगता है.<br /> <br />उर्दू के शब्द प्राय: प्रयुक्त किए गए हैं परन्तु उनका अपना ही महत्व है, विशेष<br /> स्थान है. एक उदाहरण है:<br /><br /><blockquote>"रात में क्यों वो सियाही का बनेगा वारिस<br />धूप हर शख़्स के क़दमों में बिछाने वाला"</blockquote><br /><br />‘द्विज’ की ग़ज़लें कालरिज के सिद्धान्त "श्रेष्ठतम शब्द श्रेष्ठतम स्थान पर" की याद दिलाती हैं.<br /><br />‘द्विज’ का ध्येय कुछ कहना है सरल, आसान ग़ज़ल के माध्यम से. अत: यहाँ भाषा की क्लिष्टता नहीं रखी गई है. यह तो आम लोगों की बोली में उनके भाव जज़्बे, विचार उभारने तथा व्यक्त करने का सुन्दर तथा प्रभावशाली प्रयास है. हर जगह हर तरीक़े से ठगे-दले जाते आदमी को कवि कैसे जगाने का यत्न करता है ,यह देखने योग्य है:<br /><br />"<blockquote>हर क़दम पर ठगा गया फिर भी<br />तू ख़बरदार ही नहीं होता.<br /><br />बेच डालेंगे वो तेरी दुनिया<br />तुझसे इनकार ही ही नहीं होता<br /><br />जो ‘शरण’ में गुनाह करता है<br />वो गुनहगार ही नहीं होता<br /><br />जो ख़बर ले सके सितमगर की<br />अब वो अख़बार ही नहीं होता"</blockquote><br /><br />निश्चय ही द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लें औरों की रचनाओं से बिलकुल अलग हैं, अपनेआप में अपनी पहचान हैं . सुगम, स्पष्ट और सादा भाषा में लिखी गईं ये रम्य रचनात्मक कृतियाँ आज के इतिहास का, हालात का विशुद्ध जायज़ा भी हैं और समीक्षात्मक मूल्यांकन भी . बहुत-सी पंक्तियाँ स्वत: ही स्मरण हो जाती हैं. यहाँ कोई रोमांस की नोंक-झोंक नहीं. मनोरंजन नहीं. खोखली हँसी बिखेरने की मंशा नहीं. केवल आज के मानव, जन गण मन का दर्द व्यथा बयान करने, बताने की सतत, सफल कोशिश है, इस दौर को स्पषटतया दिखाने का का श्लाघनीय प्रयत्न है. क्योंकि:<br /><br /><blockquote>"अनगिनत मायूसियों ख़ामोशियों के दौर में<br />देखना ‘द्विज’ छेड़ कर कोई ग़ज़ल उल्लास की"<br /></blockquote><br />‘द्विज’ की ग़ज़लें वस्तुत: कई बार उर्दू की प्रसिद्ध कविता "बुलबुल की फ़रियाद" की याद दिलाती हैं, जहाँ बुलबुल पिंजरे में बंद अपने स्वतंत्रता के दिनों को याद कर फ़रियाद करते हुए कहती है:<br /><br />"गाना इसे समझकर ख़ुश हों न सुनने वाले<br />टूटे हुए दिलों की फ़रियाद यह सदा है"<br /><br />यहाँ ‘द्विज’ भी इसी लय में कहता है, अपनी कविता के बारे में:<br /><br /><blockquote>छोड़िए भी... फिर कभी सुनना<br />ये बहुत लम्बी कथाएँ हैं<br /><br />ये मनोरंजन नहीं करतीं<br />क्योंकि ये ग़ज़ले व्यथाएँ हैं"<br /></blockquote><br />परन्तु इन ग़ज़लों को बार-बार सुनने की, पढ़ने की, इच्छा बनी रहेगी- यह मेरा दृढ़ विश्वास है. आशा है ‘द्विज’ भविष्य में भी और भी ऐसी रचनाएँ प्रस्तुत करेगा और हमारा समाज तथा साहित्य संसार उसकी ग़ज़लों का हार्दिक स्वागत करेगा और इसे सुधारात्मक दृष्टि से भी लेगा.<br /><br /><br />‘हिमसुमन' (मई-2007) से साभारजन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-56390106250159949982010-05-26T21:54:00.000-07:002010-05-26T21:57:16.905-07:00द्विजेन्द्र द्विज के ‘जन-गण-मन’ पर प्रसिद्ध समालोचक कैलाश कौशल की समीक्षाजन के मन की बेहतरी में ग़ज़ल<br /><br />हिन्दी ग़ज़ल में द्विजेन्द्र ‘द्विज’ का अपना एक ख़ास मुक़ाम है। उनके ग़ज़ल संग्रह `जन-गण –मन’ में 56 ग़ज़लें संकलित हैं। जन के मन से जुड़ी इन ग़ज़लों में ‘द्विज’ ने जीवन , समाज और संस्कृति और समय के यथार्थ से बिंधे अनेक पहलू उद्घाटित किए हैं।<br /><br />विगत तेइस वर्षों से हमीरपुर,पालमपुर,धर्मशाला में निवास करते हुए द्विज की ग़ज़लों में देशज संवेदना का गहरा असर है। इस संग्रह का आग़ाज़ करने वाली ग़ज़ल में पहाड़ों की आंचलिक ऊष्मा कुछ इस प्रकार व्यक्त हुई है:<br /><br />ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़<br />लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़<br /><br />पत्थर-सलेट में लुटा के अस्थियाँ तमाम<br />मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़ (पृ.11)<br /><br />इस संग्रह में व्यक्त उनका ‘पहाड़’ हिमाचल तक ही सीमित नहीं है, मज़हब,रंग,और सियासत की रुकावटों के विरुद्ध भी अपनी आवाज़ बुलंद करता है:<br /><br />ज़बान ,ज़ात या मज़हब जहाँ न टकराएँ<br />हमें हुज़ूर वो हिन्दोस्तान दीजिएगा(पृ.18)<br /><br />द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की इन ग़ज़लों में बहुत नपे तुले शब्दों में अपने समय की बृहत्तर चिंताओं को लोकतांत्रिक सोच से साझा करते हुए आवाज़ दी गई है, आज के हालात और व्यवस्था से सर्वाधिक पीड़ित और प्रताड़ित जन का मन यहाँ सघन प्रभाव के साथ व्यक्त हुआ है:<br /><br />ढाँपे हैं हमने पैर तो नंगे हुए है सर<br />या पैर नंगे हो गए सर ढाँपते हुए<br /><br />है ज़िदगी कमीज़ का टूटा हुआ बटन<br />बिंधती हैं उंगलियाँ भी जिसे टाँकते हुए<br /><br />ठेट हिन्दोस्तानी की ज़िन्दगी के ठाठ को बयाँ करने वाली ये ग़ज़लें आज़ाद भारत के पिछले छ: दशकों की तस्वीर सामने प्रस्तुत कर देती हैं और बताती है कि स्वार्थों की राजनीति के चलते आप आदमी निरंतर त्रस्त और पस्त होता गया है। देश-काल के व्यापक संदर्भों को इन छोटी-छोटी ग़ज़लों में बड़े हुनर के साथ पिरोया गया है:<br /><br />ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ<br />यह सदी पत्थर-सी है संवेदनाओं के ख़िलाफ़<br /><br />सामने हालात की लाएँ जो काली सूरतें<br />हैं कई अख़बार भी उन सूचनाओं के ख़िलाफ़ (पृ. 44)<br />******<br />फ़स्ल बेशक आप सारी अपने घर ले जाइए<br />चंद दाने मेरे हिस्से के मुझे दे जाइए (पृ.41)<br />******<br /><br />इन ग़ज़लों मे बिना किसी आवेश या आयोजन भंगिमा के उन तमाम शोषित-उपेक्षित लोगों की की जीवन-दशा और अनुभव संसार को अपनेपन के साथ समेटा गया है और यह भी कि यह हमे अपने शहर से रूबरू होने का अहसास दिलाता है:<br /><br />जो सूरज हर जगह सुंदर-सुनहरी धूप देता है<br />वो सूरज क्यों हमारे शहर में अक्सर नहीं आता (पृ.40)<br /><br />अपने संयत स्वर और सहज मुहावरे वाली सादगी से अनुप्राणित ये ग़ज़लें आजके दौर की मौजूदा व्यवस्था पर व्यंग्य करती हैं:<br /><br />हुई हैं मुद्दतें आंगन में वो नहीं उतरी<br />यों धूप रोज़ ठहरती है सायबानों में<br /><br />जगह कोई जहाँ सर हम छुपा सकें अपना<br />अभी भी ढूँढते फिरते हैं संविधानों में (पृ.56)<br /><br />ग़ज़लकार की चिंता यही है कि :<br /><br />है आज भी वहीं का वहीं आम आदमी<br />किस बात पर मुखर है ये संसद न पूछिए<br /><br />ये ग़ज़लें प्रतिरोध के स्वभव को शक्ति -संपन्न करती हैं असुर विकलांग विकास की कलई खोलती हैं।<br />ग़ज़लकार की चाह भी यही है:<br /><br />हो परिवर्तन <br />बदलें आसन<br /><br />क्योंकि:<br /><br />मन ख़ाली हैं<br />लब जन-गण-(पृ.70-71)<br /><br />प्रसिद्ध कथाकार और ग़ज़लकार ज्ञानप्रकाश विवेक इस संग्रह के विषय में लिखते हैं कि "ये ग़ज़लें हमारे समय की नुमाया आवाज़ हैं। संग्रह की ग़ज़लें हार्दिकता के साथ मानवीय पक्ष प्रस्तुत करते हुए, मनुष्य और उसकी गरिमा की पैरवी करती हैं...जिन्हें ‘द्विज’ जैसे दयानतदार शायर ने अपनी संपूर्ण चेतना के साथ रचा है। "<br /><br />द्विज की ग़ज़लें क्लेवर में छोटी हैं पर अपने भाव संवेदन,अर्थ-परिधि और व्यंजना में गहरा असर छोड़ती हैं। सीधे मर्म तक पहुँचने वाली ये ग़ज़लें धुंध में लिपटे समय की सच्चाइयों से साक्षात्कार कराती हैं। सामान्य जन के भीतर के भाव लोक और उसके साथ होने वाली नाइंसाफ़ियों सौर बुरे बरतावों तथा समय की विद्रूपताओं को व्यंजित करती हुई ये ग़ज़लें बेबाक और पुरासर अंदाज़ में अपनी बात कहती हैं।<br />भाषाई स्तर पर द्विजेन्द्र ‘द्विज’ को ‘दुष्यन्त-कुल’ का ग़ज़लकार कहा जाता है। जो हिन्दी और उर्दू के बीच संतुलन कायम करते हुए सादगी और सहजता को अपनी बानगी बना लेते हैं। उनके संवेदनात्मक उद्देश्य में निहित ईमानदारी और बयान की साफ़गोई भीतर तक वह चोट करती है जिसे पा कर पाठक को सुकून मिलता है। संग्रह की भूमिका में ख्यातनाम ग़ज़लगो ज़हीर कुरैशी उनकी ग़ज़लों को हिन्दोस्तानी ठाठ की ग़ज़लें बताते हुए कहते है: ‘द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लों में एक विशेष किस्म की आंतरिकता,समझ , सलाहियत सूक्षम्ता और सघनता को महसूस किया जा सकता है।... कुल मिलाकर उनकी ग़ज़लें प्रगतिशील और जनवादी चेतना से लैस जागरूक ग़ज़लें हैं जो कोम्पलों की शैली में पल्लवित होती हैं। (पृ.9)<br />वस्तुत: द्विजेन्द्र द्विज उन ग़ज़लकारों में से हैं जिनके अन्दर बाहर की घटनाओं के कारण<br />निरंतर कुछ घटता रहता है और जिसे वे अपने साथ अपने शे’रों के माध्यम से तुरंत बाँटना चाहते हैं:<br /><br />जुड़ेंगी सीधे कहीं ज़िंदगी से ये जाकर<br />भले ही ख़ुश्क हैं ग़ज़लें ये गुनगुनाने में<br /><br />ग़ज़ल में शे’र ही कहना है ‘द्विज’, हुनरमंदी<br />नया तो कुछ भी नहीं क़ाफ़िए उठाने में (पृ.67)<br /><br />ये ग़ज़लें अपनी संप्रेषणीयता में सहज किन्तु असाधारण, असरदार और अपने ‘समय की पागल हवाओं के ख़िलाफ़’ नई इबारत लिखती हैं:<br /><br />आख़िरी पत्ते ने बेशक चूम ली आख़िर ज़मीन<br />पर लड़ा वो शान से पागल हवाओं के ख़िलाफ़<br /><br />साभार : डा. कौशल नाथ उपाध्याय के संपादन में जोधपुर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सेतु’ (अक्टूबर-नवंबर-2008)जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-39365265440408276662010-01-13T02:05:00.000-08:002010-01-13T02:08:13.912-08:00द्विजेंद्र ‘द्विज’ पर मशहूर शायर और अतिथि-सम्पादक ‘फ़िक्रो-फ़न’ सुरेश चन्द्र ‘शौक़’ शिमलवी<span style="color:#ff6600;"><strong>एक ताबनाक चिंगारी</strong></span><br /><br />नौजवान नस्ल के आतिशख़ाना से जो चिंगारियाँ निकल रही हैं, उनमें से एक निहायत ताबनाक (ज्योतिर्मयी) चिंगारी का नाम है द्विजेंद्र ‘द्विज’. अपनी इनफ़रादी (मौलिक) सोच और लबो-लहज़ा (कहन, कहने का ढँग) के सबब वो दूसरों से अलग नज़र आते हैं. उनके क़लाम में फ़िक्रो-अहसास की ताज़गी, अस्रे-हाज़िर (वर्तमान समय) के हालात की अक्कासी, इन्सानी दोस्ती का जज़्बा ख़ास तौर पर नुमायाँ है. वो अपने मुशाहदात (पर्यवेक्षण) तजरिबात(प्रयोग) और अहसासात(अनुभवों) को दिल की आँच में तपाकर निहायत पुरदर्द , पुरसोज़ और पुरअसर अंदाज़ में लफ़्ज़ों में पिरोते हैं. उनका फ़न(कला) मआनवीयत(अर्थपूर्णता), गहराई , सेहतमंदी और साफ़गोई (स्पष्टवादिता) का हामिल(पक्षधर) है. ख़ौफ़ो-हिरास (भय और त्रास) की धूल में लिपटा हुआ इंसान उनके अश’आर में बसा हुआ है.<br /><br /><span style="font-size:130%;">‘<span style="color:#ff0000;">द्विज’</span> </span>ने ख़ुद को हमेशा असरी ज़िन्दगी (प्रभावी जीवन)के नज़दीक रखा है. वो अपने बेअमाँ(असुरक्षित) और बेदरमाँ(ला-इलाज) अह्द के मआशी(जीविका संबंधी) और मुआशरती इंतिशार (सह-अस्तित्व के बिखराव) और उसकी नफ़्सियाती(मनोवैज्ञानिक) और माद्दी (भौतिक)परीशानियों से आगाह हैं . वो अहद कि जिसमें पुरानी क़द्रों (मूल्यों)को ग्रहण लग चुका है और ज़ाती मफ़ादात(व्यक्तिगत लाभ) के लिए अख़लाक(चरित्र) और मरव्वत(संवेदना) को बाला-ए-ताक़ दिया गया है, उसकी खुलकर मज़म्मत(निंदा) करते हैं. उन्हें एक साफ़-सुथरे मुआशरे(समाज)की तलाश है. वो अम्नो-मुसावात(शांति और समानता) , भाईचारगी, फ़िरक़ावाराना-हमआहंगी (सांप्रदायिक सद्भाव) और जम्हूरी क़द्रों (लोकतांत्रिक मूल्यों) की बहाली के ख़्वाब देखते हैं और जब इन ख़्वाबों पर ज़र्ब पड़ती है तो उनकी शे’री सोच पर तल्ख़ी के अक़्स उभर आते हैं,लेकिन उनकी तल्ख़ी कड़वाहट में नहीं बदलती. वो ज़ख़्म-ख़ुर्दा(ज़ख़्म खाए हुए) हैं, मगर दिल-शिकस्ता नहीं. मायूसियों के सैलाब में भी अज़्मो-इस्तिकलाल(स्वाबलंबन का प्रण) रखते हैं. मताए-ख़ुदी(आत्म-सम्मान की दौलत)को हमेशा बरक़रार रखने में उनका यक़ीन है, जो उनकी ख़ुद्दार तबीयत का ग़म्माज़ है(परिचायक) . बिँधती हुई उँगलियों के बावजूद वो ज़िंदगी की क़मीज़ के टूटे हुए बटनों को टाँकने में मसरूफ़ हैं.<br /><br />‘द्विज’ की शायरी ग़ैर-ज़रूरी सन्नाई(अनावश्यक कला-कर्म) से आरी (स्वतंत्र)है. ज़बान और लहज़ा नामानूस(अपरिचित) और मुबहम(अस्पष्ट) नहीं. उस्लूब(शैली) सादा, सलीस और आमफ़हम है.<br /><br />मेरे हक़ीर ख़याल में एक अच्छे शे’र की अहम पहचान यही है कि वो सच्चा हो. ‘द्विज’ बज़ाते-ख़ुद सरापा महब्बत हैं और एक सच्चे इन्सान. उनका सुख-दुख भी सच्चा है. यही वजह है कि उनके शे’र सच्चे लगते हैं. वो दिन दूर नहीं कि जब अपनी इनफ़रादी(मौलिक) आन-बान और सच्चाई के बाइस(कारण) उनकी आवाज़ ग़ज़ल की भीड़ में दूर से पहचानी जाएगी.<br /><br /><span style="color:#ff0000;">सुरेश चन्द्र ‘शौक़’ शिमलवी<br /></span>15 जनवरी,2003. शिमलाजन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-43134781249750577532010-01-09T02:44:00.000-08:002010-01-09T02:55:57.045-08:00Dr.P.K. Sharma on Dwijendra Dwij's "JAN-GAN-MAN" in Poet-Crit (International)July-Aug 2004<span style="font-size:130%;color:#cc0000;">"Jan-gan-man"</span> as the title indicates is essentially poet's encounter with the world as he finds it. It would not be off the point to call them 'protest poems' if we can give this generalised description.<br /><br /><br />Each `ghazal' is born out of experience (real or virtual) and therefore, has an immediacy of effect.it comes as the poet's authentic voice. Obviously this kind of poetry tends to settle into satire since it is directed at socio-politico-econimic disorder in the society. Poet's consciousness is continuously battling with the chaos,cruelty and hypocrisy that is so pervasive all around. The good thing about these ghazals is that satire is controlled and well directed.it is not vitriolic in character.The poet uses his anger creatively against the rottenness in the system.<br />I only wish the poet should not stay with the protest mode. He has to go beyond where his quarrels start with himself and he looks at the world through the crystal of lhis unified vision.W.B. yeats has aptly remarked that out of quarrel with the world comes rhetoric and out of quarrel with oneself comes poetry. I see these poems not only his quarrel with the world but also with himself. Best things are born out of thi battling of the soul.<br />I do not understand much about the discipline of ghazal as genre. But these do have telling effect on the reader, particularly if these are read aloud. As the review writer in the book has pointed out, poets language is Hindustani which, I think,has come to stay in literature though some purists might feel a little uneasy about it.<br />Dwij's poetry has a ring of total sincerity about it and it cannot be accused of any false note.I wish some of the ghazals could be set to song and music to get the best out of them.<br /><br /><br /><strong><span style="color:#ff0000;">Courtesy : Poet-Crit (International)July-Aug 2004<br /><br /></span></strong>जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-60458447116137609242008-11-14T02:49:00.000-08:002008-11-14T02:52:31.209-08:00<span style="color:#ff0000;"><strong>'जन-गण-मन' पर प्रख्यात शायर डा० शबाब ललित :<br /></strong></span>दायित्व बोध को झंकृत करती ग़ज़लें— डा० शबाब ललित<br /><br />'जन-गण-मन' युवा कवि <span style="color:#ff0000;">द्विजेन्द्र 'द्विज'</span> की छ्प्पन ग़ज़लों का अनुपम संग्रह है । 'द्विज' के पिता स्वर्गीय मनोहर शर्मा 'साग़र' पालमपुरी उर्दू और पहाड़ी काव्य के मैदान के सुप्रसिद्ध शह सवार थे । स्पष्ट है कि 'द्विज' का लालन—पालन एक सुलझे हुए साहित्य प्रेमी घराने में हुआ और उसके व्यक्तित्व एवं संस्कारों का ख़मीर विशुद्ध साहित्यिक माहौल की छाया में उठा ।<br />'द्विज' पर्वतवासी हैं । उनके बचपन और यौवन के माहो-साल पर्वत के रम्य , रुचिकर और प्रेम पोषक मंज़रों की गोद में बीते जहाँ क़दम-क़दम पर रूप का जादू, और रोमांस का माधुर्य मन को गुदगुदाता है। ऐसे माहौल में बढ़े-पले शायर के कलम से यद्यपि मैंहदी की तिलिस्मी सुगंध और ठण्डे चश्मों की लहरों के कोमल स्पर्श का एहसास जागना स्वाभविक एवं अपेक्षित था परंतु 'द्विज' की रचनाओं में इस एहसास की जगह यथार्थ के निश्तर की काट अधिक नुमायाँ है । ऐसा लगता है कि फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' की मशहूरे-ज़माना काव्य पँक्ति—'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा'—ने 'द्विज' की काव्य यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया है। 'जन-गण-मन' का कवि सपनों के विलास महल में चैन की बाँसुरी बजाने के बजाए यथार्थ की संगलाख़ चट्टानों की तपिश भोगता और इस ऊष्णता से पसीने में नहाए आम आदमी के दुख, दर्द एवं यातना को बाँटता कलमकार है । पर्वत के आम आदमी की ज़िन्दगी उसके लिए खुली किताब है। वह स्वयं यह सच्चाई स्वीकार करता है :<br /><br /><span style="color:#ff6666;">'ये मनोरंजन नहीं करती<br />क्योंकि ये ग़ज़लें व्यथाएँ हैं।'<br /></span><br />अत: उसके शेरों में जिस जग बीती का उल्लेख है वह उसकी आपबीती भी है। ग़ज़ल के माध्यम से 'द्विज' ने इस विशाल भारत भूखण्ड की बहुसंख्यक जनता की ,जो ग़रीबी रेखा से नीचे गुज़र-बसर कर रही है, आकांक्षाओं, उत्कंठाओं , समस्याओं और पीड़ाओं को वाणी दी है। जब आम आदमी की संवेदनाओं के प्रति जन प्रतिनिधियों की उदासीनता और स्वार्थी वृत्ति से उसका कवि हृदय संतप्त एवं आन्दोलित होता है तो झुंझला कर अपने शेरों को व्यंग्य वाण बना लेता है। निर्धनता,बेरोज़गारी और अभावों की व्यथा शायर की नींद हराम कर देती है जिनके सर छुपाने को छत नहीं और जो भूख और बदहाली से परेशान हैं । तब 'द्विज' कह उठता है :<br /><br /><span style="color:#ff6600;">'भूख है तो मरो भूख से<br />ऐसे भी हल निकाले गये<br /><br />'देख, ऐसे सवाल रहने दे<br />बेघरों का ख़याल रहने दे<br /><br />इनके होने का कुछ भरम तो रहे<br />इनपे इतनी तो खाल रहने दे<br /><br />भूल जाएँ न बिन तेरे जीना<br />बस्तियों में बवाल रहने दे<br /><br /></span>ना—बराबरी,धन और सुविधाओं की न्याय—असंगत बाँट, पूँजीपतियों और राजनेताओं की साज़िशी मिलीभगत, काले धन के ख़ुदाओं और बाहुबली अपराधी तब्के की सीनाज़ोरी, अत्याचार,अंधेरगर्दी और ला—क़ानूनी को देखकर कवि का मन तड़प उठता है तो 'जन-गण-मन' के प्रवक्ता कवि के अधरों पर मन का उबाल यों आता है:<br /><span style="color:#3366ff;">'टूटे छप्पर, <br />सर पर सावन<br /><br />निर्वासित है<br />क्यों 'जन-गण-मन'?<br /><br />क्यों खलनायक<br />का अभिनंदन<br /><br /></span><span style="color:#993300;">सारी गर्मी कुछ लोगों ने भर ली अपने झोलों में<br />अपने हिस्से में आई है ले देकर बर्फ़ानी रात<br /><br />खोदता है वो खाइयाँ अक्सर<br />लोग कहते हैं पुल बनाता<br /><br />घाट था सबके लिए फिर भी न जाने क्यों वहाँ<br />कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन-चुन के नहलाए गए<br /><br /></span>खाई को पुल बनाने और बताने वाले पाखंडियॊं के ढोल का पोल खोलते हुए कवि यथार्थ से पर्दा उठाता है और कहता है:<br /><br /><span style="color:#006600;">वो अपने आप को कहते हैं मील के पत्थर<br />मुसाफ़िरों को वो रस्ता सही नहीं देते ।<br /><br />बयान अम्न के खेतों में आग के गोले<br />समझ में आई नहीं बात दोग़ली बाबा!<br /><br />आँख मूँदे जिस डगर पर आपके पीछे चले<br />आँख खोली तो यह जाना यह सड़क तो खाई है<br /><br /></span>यह अनासिर(तत्व) जन गण को धर्म,भाषा ,जाति-पाँति के नाम पर तो कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर भिड़ा कर अपना उल्लू सीधा करते हैं तो कवि आम नागरिक को सचेत करने के साथ-साथ इन 'गंदुम नुमा, जौ फ़िरोश' मक्कारों से बरगला कहता है :<br /><br /><strong><span style="color:#cc0000;">'तुम्हारे ख़्वाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद हैं<br />हमारे ख़्वाब में 'द्विज' सिर्फ़ रोटी-दाल बसते हैं।'<br /></span></strong><br /><span style="color:#cc9933;">'बने हैं पढ़ के जिसे आज वो वली बाबा !<br />किताब आज वो हमने भी बाँच ली बाबा !'<br /></span><br />इन स्वार्थी शातिरों को वह जनता के मन के उबाल और आक्रोश से आगाह करता हुआ चेतावनी देता है:<br /><br /><span style="color:#cc6600;">स्वार्थों के रास्ते चल कर<br />डगमगाती आस्थाएँ हैं ।<br /><br />फूल हैं हाथों में लोगों के<br />पर दिलों में बद्दुआएँ है<br /><br />चुप्पियाँ जिस दिन ख़बतर हो जाएँगी<br />हस्तियाँ सब दर-ब-दर हो जाएँगी<br /><br /></span>जिस राजतंत्र में जन सेवा के नाम पर जन शोषण और राजनीति के ठेके द्वारा लूट जारी हो वहाँ दिन पलटने की यह आस बनाए रखना गनीमत है क्यों कि आशा ही जीवन का अवलंब है और इसी आशा के बलबूते पर ही कवि जनता और देश के दुश्मनों से कहता है:<br />'द्विज' की ग़ज़ल की शैली सरल और स्पष्ट है । उर्दू के तथाकथित 'जदीद' शायरों की भाँति वह पाठक को अजनबी बिम्बों और उलझे-धुँधले प्रतीकों की भूल-भुलैयाँ में नहीं डालते। न ही वह कठिन शब्दावली का प्रयोग करके अपनी विद्वता का सिक्का जमाने और पाठक को शब्दकोश खोल कर शे'र समझने पर मजबूर करते हैं, न पेचीदा संधिबद्ध वाक्यों से अपने शेरों को बोझिल बनाते हैं ।<br /><br />'द्विज' की ग़ज़ल में उर्दू-हिन्दी शब्दावली का सुन्दर और सटीक मिश्रण मन को मोहता है और शेरों की प्रभाव-क्षमता में इज़ाफ़ा करता है। उसकी ग़ज़ल समकालीन चुनौतियों और नये सरोकारों की प्रतिक्रिया ही है और माँगपूर्ति भी और सचमुच ही जन-गण-मन का प्रतिबिम्ब भी। यह जनमानस की स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक, सांसारिक समस्याओं, चिंताओं, बाधाओं, और निराशाओं को दर्पण दिखाती रचनाएँ हैं जो साम्प्रदायिकता,संकुचित निजी स्वार्थों,लूट-खसूट,भ्रष्टाचार और अपराधिक वृत्ति से ग्रस्त तथा दूषित राजनैतिक माहौल पर खुल कर प्रहार करती हैं ।<br />कवि कहीं भी निजी स्वार्थ या अवसरवादिता के प्रभाव में आकर सत्यवादिता से पीछे हटता नहीं दिखता । उसका उद्घोष है:<br />आपका हर शब्द इक तहरीक होना चाहिए<br />साथियो ! वक्तव्य को निर्भीक होना चाहिए<br />'द्विज' का यह ग़ज़ल संकलन आम इंसान के ज़ख़्मों का जलूस है जिसकी बाबत उसने स्वयं कहा है:<br /><span style="color:#3333ff;">अपने दिल के ज़ख़्मों-सी<br />काग़ज़ पर फुलवारी कर<br /></span>पुस्तक ख़ूबसूरत छपी है और कम्प्यूटिंग की ग़लतियों से पाक है। द्विज की यह बुलंद पाया कृति जन—गण—मन की गहन तवज्जुह की हक़दार है।<br /><strong>हिमप्रस्थ (अगस्त,२००३) से साभार</strong>जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-31216421715543693582008-11-08T05:21:00.001-08:002008-11-09T22:00:19.073-08:00<span style="color:#ff6600;"><strong><span style="font-size:130%;">ग़ज़लकार, समीक्षक बृज किशोर वर्मा 'शैदी'ने जन-गण-मन की समीक्षा मे लिखा है:</span> </strong><br /></span><br />अँग्रेज़ी के प्राध्यापक, मारण्डा (काँगड़ा) निवासी <a href="http://kavitakosh.org/dwij.htm"><span style="color:#ff0000;"><span style="font-size:130%;">श्री द्विजेन्द्र 'द्विज'</span></span> </a>की ५६ ग़ज़लों का यह प्रथम संग्रह 'जन-गण-मन' कई मायनों में विशिष्ट है। परिपाटी से हट कर संग्रह का शीर्षक, वैसा ही असामान्य तख़ल्लुस(उपनाम) और कवि परिचय व आत्म-कथ्य का अभाव थोड़ा चौंकाते है। वैसी ही चौंकाने वाली है ग़ज़लों की स्तरीयता, जो बाज़ार में उपलब्ध ढेरों ग़ज़ल-संग्रहों में दुर्लभ से दुर्लभ होती जा रही है। 'जन-गण-मन' को समर्पित इस संग्रह की सभी ग़ज़लें जन—गण के मन का आईना हैं। चुप्पियों का अहसास, शोर की बकवास, मन का संत्रास, समय का उपहास,चटकती आस, भटकती प्यास और इन सब के बावजूद कवि का आत्मविश्वास रचनाओं में बड़े ही प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त हुए हैं।<br />नये रूपकों-मुहावरों-बिंबों का प्रयोग ताज़ा हवा के झोंकों-सी अनुभूति देता है:<br /><br /><span style="color:#ff0000;">'जब से काँटों की तिजारत ही फली-फूली है<br />कोई मिलता ही नहीं फूल खिलाने वाला'<br /></span><br />```````````````<br /><span style="color:#ff6600;">इस युग में हो गया है चलन 'बोनसाई' का<br />यारो ! किसी भी पेड़ का अब क़द न पूछिये </span><br />`````````````````<br /><br /><span style="color:#cc9933;">एकलव्यों को रखेगा वो हमेशा ताक़ पर<br />पाण्डवों या कौरवों को दाखिला दे जाएगा</span><br />इस संग्रह की सभी ग़ज़लों की विशेषता यही है कि छंद में कहीं झोल नहीं है,जैसाकि अक्सर बड़े-बड़े रचनाकारों के यहाँ भी देखने को मिल जाता है। 'भाषा बहुत ही सरल किन्तु प्रभावपूर्ण है क्योंकि यह जन—गण के मन व जीवन से जुड़ी है।कवि के अपने ही शब्दों में:<br /><br /><span style="color:#ff6600;">जुड़ेंगी सीधे कहीं ज़िन्दगी से ये जाकर<br />भले ही ख़ुश्क हैं ग़ज़लें ये गुनगुनाने में।<br /></span><br />प्रस्तुत संग्रह पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी है पुस्तक में सम्मिलित ज़हीर कुरेशी व ज्ञानप्रकाशविवेक के कथन की पुष्टि ही करते हैं।<br /><br /><span style="color:#3333ff;">मसि-कागद(अंक—२१) [अक्तूबर-दिसंबर २००३] से साभार</span>जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-53785365838338266962008-11-08T05:19:00.000-08:002008-11-09T23:01:38.122-08:00<strong><font color="#ff6600">प्रख्यात कवि डा० तारादत्त 'निर्विरोध' ने </font><a href="http://kavitakosh.org/dwij.htm"><font color="#ff6600">द्विजेन्द्र' द्विज' के ग़ज़ल संग्रह 'जन-गण-मन' </font></a><font color="#ff6600">की समीक्षा में लिखा है: </font></strong><br /><br />आदमी की वकालत करती ग़ज़लें : एक सार्थक प्रयास<br />"सैंकड़ों हिन्दी ग़ज़लों से गुज़रते हुए काफ़ी अर्से बाद मुझे द्विजेन्द्र 'द्विज' की ग़ज़लों ने कहीं गहरे तक प्रभावित किया है और मैंने उनके पहले ग़ज़ल संग्रह 'जन-गण-मन' की सभी ग़ज़लों को आद्यंत पढ़ा । पुस्तक को पढ़ते समय तीन बातें उभर कर सामने आई हैं— इन ग़ज़लों के सभी शे'र बोलते हैं, कुछ कहते हैं,कुछ कहना चाहते हैं, अपनी मौलिकता दर्शाते हैं और गूँगे —बहरे नहीं हैं । दूसरी बात यह कि सभी शे'र समय सापेक्ष हैं, सीमा में रहते हुए भी बाहरी आक्रमणों का खुल कर विरोध करते हैं, किसी स्तर पर कोई समझौता नहीं करना चाहते और तीसरी बात यह है कि इन ग़ज़लों की सोच में आज का आदमी है। ग़ज़लकार की सारी वक़ालत उस 'बीच के आदमी" के लिए है जो भीतर और बाहर के आदमियों से संत्रस्त है,जिसे कालसर्प ने डँस लिया है या फिर उसका जीवम चक्र तोड़ दिया गया है।<br /><br />ग़ज़ल की पृष्ठ भूमि में न जाकर भावभूमि में विचरें तो लगता है "जन-गण-मन" की ५६ ग़ज़लों में ऐसा बहुत कुछ है जि हमारे दूर-पास है या फिर काल भ्रमित अँधेरों में डूबा हुआ कोई आदमी है जिसे वर्षों से अपनी पहचान की एक निरंतर तलाश है । ग़ज़लकार कहीं भी रहे, उसका दृष्टि विस्तार ऐसा है कि वह जीवन का कोना-कोना झाँक आया है। यही सब है आलोच्य कृति के कृतिकार द्विजेन्द्र 'द्विज' की ग़ज़लों के मूल में। उन्होंने ग़ज़ल के माध्यम से सिरधरों की दोग़ली नीतियों पर भी प्रहार किए हैं तो सामाजिक विद्रूपताओं के ख़िलाफ़ भी प्रश्न खड़े किए हैं और इन प्रहारों-प्रश्नों में जीवन का क्रूर सच उदघाटित होता नज़र आता है:<br /><br />पर्वतों में जीता हुआ उनका ग़ज़लकार अपनी ज़मीन से अनजुड़ा नहीं है और विषम परिस्थितियों को भी दर्शाता है—<br /><br />" ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़<br />लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़ ।<br /><br />हैं तो बुलंद हैसलों के तर्जुमाँ पहाड़<br />पर बेबसी के भी बने हैं कारवाँ पहाड़।"<br /><br />ग़ज़लकार को उन सभी लोगों की बाख़ूबी पहचान है जो अपने सिवा किसी को नहीं जानते—<br /><br /><br /><font color="#33cc00">न भूलो, तुम ने ये उँचाइयाँ भी हमसे छीनी हैं<br />हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते </font><br /><br /><font color="#ff0000">तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक<br />वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते ।</font><br /><br />ग़ज़लकार ने समय के ग़लत लोगों को आज के आदमी और उसकी क्षमता का भी आभास कराया है ताकि वे समय रहते अपने रास्ते बदल सकें:<br /><br /><font color="#3333ff">"बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम<br />खिड़कियाँ हों हर जगह ऐसी दुआ लिखते हैं हम<br /></font><br /><font color="#993300">जो बिछाई जा रही हैं ज़िन्दगी की राह में<br />उन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम।</font><br /><br />किंतु विवशता यह है कि हम कितने ही चलें, चलते राहगीरों को भी रास्ते नहीं मिलते और लोग हैं कि न वे ख़ुदा से डरते हैं, न ख़ुदाई से और ही अपने आप से तभी तो ग़ज़लकार कहता है—<br /><br /><font color="#996633">बराबर चल रहे हो और फिर भी घर नहीं आता<br />तुम्हें यह सोच कर लोगो कभी क्या डर नहीं आता</font><br /><br /><font color="#ff0000">तुम्हारे दिल सुलगने का यकीं कैसे हो लोगों को<br />अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता ।"<br /></font><br />स्थिति यह है कि सब कहीं अँधेरा व्याप्त है और मन की किरण किसी के साथ नहीं ।संग्रह के इस महत्वपूर्ण शे'र का यही मंतव्य और कथ्य है—<br /><br /><font color="#ff6600">"जिन किताबों ने अँधेरों के सिवा कुछ न दिया<br />है कोई उनको यहाँ आग लगाने वाला?"<br /></font><br />ग़ज़लकार 'द्विज' ने थके हारे लोगों की थकानों को भी लिखा है तो पंख कटे आहत पक्षी जैसे आदमी की उड़ानों को भी—<br /><br /><font color="#33cc00">"ढली है इस तरह ये ज़िन्दगी थकानों में<br />यक़ीन ही न रहा अब हमें उड़ानों में </font><br /><br /><font color="#ff6600">जगह कोई जहाँ सर हम छुपा सकें अपना<br />अभी भी ढूँढते फिरते हैं संविधानों में ।"<br /></font><br />दुरस्थिति यह है कि बात तो हम जन गण मन की करते हैं, किंतु यह भी सच है कि हम जहाँ थे वहीं रह गए हैं एक लंबी दूरी की अंतर्यात्राओं के बाद भी—<br /><br /><font color="#993300">पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए<br />ख़ास जो संदर्भ थे ज़बरन वो झुठलाए गए<br /><br /></font><font color="#cc6600">घाट था सबके लिए पर फिर भी जाने क्यों वहाँ<br />कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन-चुन के नहलाए गए<br /></font><br />जन गण मन की अवधारणा को सांकेतिक भाषा में व्यक्त करते हुए भी आलोच्य कृति की ग़ज़लें आने वाले समय से जोड़ती हैं वर्तमान और उसके अतीत को जिसमें कोई आगामी अतीत भी है और जिसका साक्षी है वह बीच का आदमी ।<br /><br />कहना चाहूँगा, "जन गण मन" ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लें उस विकल्पहीन आदमी के मन की सशक्त अभिव्यक्ति हैं जो मौन रहने के बजाए अपनी पैरवी करना ज़रूर चाहता है और बधाई देना चाहूँगा 'द्विज' जी को जिन्होंने भीड़ में घिरे रहने के बावजूद अपनी सोच और आवाज़ को बुलंद किया है।यह एक सार्थक प्रयास है आगामी सूर्य की अगुवानी के लिए।"जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8125401994739105392.post-73532487605372236892008-09-29T00:29:00.000-07:002008-10-15T05:30:35.084-07:00जन-गण-मन<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiw_i8cMzeub4NuOIMIJOk_QKjUabszozBKSXz8lJsTmV4XtfKzbXgCyAfMJa5hIhcfklfmBT8pwCHzuziGMafqDphQ53kwV3vioRqm43vbi6jGLf_mzEuTYLSwznC_XdwO86tkxA0YGqo/s1600-h/140px-Jan_gan_man.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5251344854069304754" style="DISPLAY: block; MARGIN: 0px auto 10px; CURSOR: hand; TEXT-ALIGN: center" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiw_i8cMzeub4NuOIMIJOk_QKjUabszozBKSXz8lJsTmV4XtfKzbXgCyAfMJa5hIhcfklfmBT8pwCHzuziGMafqDphQ53kwV3vioRqm43vbi6jGLf_mzEuTYLSwznC_XdwO86tkxA0YGqo/s400/140px-Jan_gan_man.jpg" border="0" /></a><br /><div><strong><span style="color:#ff0000;">द्विजेन्द्र ’द्विज’ के ग़ज़ल संग्रह ‘जन-गण-मन’ पर सुविख्यात ग़ज़लकार एवं छंद शास्त्री श्री आर.पी.शर्मा ‘महर्षि’ :<br /></span></strong>दुष्यंत-देवांश प्रकाशन, अशोक लाज, मारण्डा(हिमाचल प्रदेश) से प्रकाशित द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लों का संग्रह जन-गण-मन पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ । इस पुस्तक में उनकी छप्पन ग़ज़लें संग्रहीत हैं,मानो ‘द्विज’ जी ने ठाकुर जी को लगाए ‘छप्पन भोग’ को प्रसाद के रूप में हमें बाँटा हो। ग़ज़लकार ज़हीर कुरेशी द्वारा लिखित इस संग्रह की विशद भूमिका से ज्ञात हुआ है कि ‘द्विज’ इसलिए भी उल्लेखनीय ग़ज़लगो हैं क्योंकि वे विगत तेईस वर्षों से मारंडा (पालमपुर),रोहड़ू, हमीरपुर,काँगड़ा और धर्मशाला जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते हुए अच्छी ग़ज़लें कह रहे हैं,जहाँ वस्तुत: ग़ज़लगोई का कोई उत्साहवर्धक माहोल नहीं है। ज़हीर जी ने इस संबंध में एक मौके का शेर भी प्रस्तुत किया है:<br />‘ये फूल सख़्त चट्टानों के बीच खिलते हैं<br />ये वो नहीं जिन्हें माली की देखभाल लगे’<br />पर्वतों, चट्टानों की बात बात आई तो द्विजेन्द्र जी का यह शेर भी दृष्टव्य है:<br />‘पर्वतों जैसी व्यथाएँ हैं<br />पत्थरों से प्रार्थनाएँ हैं’<br />इस संग्रह की उनकी पहली ग़ज़ल भी पहाड़ों को ही समर्पित है,ग़ज़ल के सभी शेर अच्छे बन पड़े है, जिनमें से कुछ निम्नानुसार हैं:<br />नदियों सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद<br />देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़<br /><br /><span style="color:#3333ff;">वो तो रहेगा खोदकर उनकी जड़े तमाम<br />बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़<br /></span><br /><span style="color:#ff6600;">कचरा व प्लास्टिक मिलें उपहार में इन्हें<br />सैलानियों के ‘द्विज’ हुए हैं मेज़बाँ पहाड़’<br /><br /></span>यहाँ प्रसंगवश हिमाचल के ख्याति प्राप्त शायर एवं ग़ज़लकार डा. शबाब ललित (शिमला) का एक शेर याद आ रहा है,जिसमें उन्होंने बर्फ़ से ढकी पहाड़ियों का चित्रण कुछ इस प्रकार किया है:<br /><br />‘तेरा पत्थर-सा दिल भी पिघल जाएगा<br />प्यार की आँच इन बर्फ़ज़ारों में है’<br /><br />इसी प्रकार का उनका एक अन्य शेर भी है-<br /><br /><span style="color:#ff0000;">‘रास हम परदेसियों को आ गई<br />पर्वतों की सर्द बर्फ़ीली हवा’<br /></span>‘द्विज’ की ग़ज़लों में जहाँ भी हिन्दी-उर्दू शब्दों का मिश्रण हुआ है, समुचित अनुपात में हुआ है,जैसे—<br />‘फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदंडों में<br />वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते’<br />‘अंगद’ यहाँ पौराणिक मिथक के रूप में शेर को और भी अर्थपूर्ण एवं व्यापक बना देता है,साथ ही यह अपनी संस्कृति से जुड़ने का परिचायक भी है।<br /><br />‘द्विज’ ने् ग़ज़लों नए-नए शब्द और अर्थ देने का भी अच्छा प्रयास किया है:<br /><br /><span style="color:#cc0000;">‘रोज़ कितने ही उजालों का दहन होता है<br />लोग कहते हैं यहाँ रोज़ हवन होता है’<br /></span><br /><span style="color:#3333ff;">‘रहे न व्यर्थ ही चुप ठूँठ बूढ़े पेड़ों के<br />सुलग उठे वही दावानलों की भाषा में’<br /></span><br /><span style="color:#ff6666;">‘जो लड़ें जीवन की सब संभावनाओं के ख़िलाफ़<br />हम हमेशा ही रहे उन भूमिकाओं के खिलाफ़’<br /></span><br /><span style="color:#ff0000;">‘आदमी से आदमी दीपक से दीपक दूर हों<br />आजकी ग़ज़लें हैं ऐसी वर्जनाओं के ख़िलाफ़’<br /><br />‘पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए<br />ख़ास जो संदर्भ थे केवल वो झुठलाए गए’<br /></span><br />‘द्विज’ के कुछ बहुत ही मार्मिक शेर ये भी:<br /><strong>‘सूरज का एहतराम किया उसने उम्र भर<br />जिसका कहीं भी धूप की बस्ती में घर न था’<br /></strong><br />‘अभागे लोग हैं कितने इसी संपन्न बस्ती में<br />अभावों के जिन्हें हरपल भयानक साँप डसते हैं’<br /><br />मंदिर् और मस्जिद के झगड़ों पर करारी चोट करते हुए ‘द्विज’ कहते हैं:<br /><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>“तुम्हारे ख़्बाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद हैं<br />हमारे ख़्वाब में ‘द्विज’ सिर्फ़ रोटी —दाल बसते हैं’<br /></strong></span>‘द्विज’ की ग़ज़लों की भाषा गंगा-जमुनी है, वे दोनों ही भाषाओं को समान सम्मान देते हैं,उन्होंने अपनी ग़ज़लो में जहाँ उर्दू बहरों का प्रयोग किया है ,वहीं कुछ ग़ज़लें ऐसी भी हैं जो हिन्दी छंदों में कही गई हैं। जैसे:<br />‘जीवन के हर मोड़ पर अब तो संदेहों का साया है<br />नफ़रत की तहज़ीब ने अपना रंग अजब दिखलाया है<br />ये पंक्तियाँ राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की निम्न्लिखित पंक्तियों की तर्ज़ पर हैं:<br /><strong>‘चारू चंद्र की चंचल किरणें ,खेल रही हैं जल-थल में<br />स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अंबर तल में’<br /></strong>(मात्रिक समछंद ताटंक/लानवी,प्रति चरण सोलह: चौदह मात्राएँ। पर+अब= परब में संधि है तथा ’ने’<br />लघु उच्चारित हो रहा है।)<br />समग्र रूप में ‘द्विज’ की ग़ज़लें सुरुचिपूर्ण और समय की माँग के अनुसार हैं,पाठक उनकी ग़ज़लों को चाव से पढ़ेंगे,इसलिए कि,उनमें उन्हें भरपूर तग़ज़्ज़ुल मिलेगा। ग़ज़ल संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है। उनकी लेखनी दिन—प्रति सशक्त हो! यही हमारी मंगल कामना है।<br />मासिक साहित्य क्रांति—गुना (म.प्र). [अंक— दिसम्बर२००३] से साभार</div>जन-गण-मनhttp://www.blogger.com/profile/08946188447542768171noreply@blogger.com2