Sunday, June 27, 2010

ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़

ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़
लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़

हैं तो बुलन्द हौसलों के तर्जुमाँ पहाड़
पर बेबसी के भी बने हैं कारवाँ पहाड़

थी मौसमों की मार तो बेशक बडी शदीद
अब तक बने रहे हैं मगर सख़्त-जाँ पहाड़

सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ
ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़

पत्थर-सलेट में लुटा कर अस्थियाँ तमाम
मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़

नदियों,सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद
देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़

वो तो रहेगा खोद कर उनकी जड़ें तमाम
बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़

सीनों से इनके बिजलियाँ,सड़कें गुज़र गईं
वन, जीव, जन्तु, बर्फ़, हवा, अब कहाँ पहाड़

कचरा,कबाड़,प्लास्टिक उपहार में मिले
सैलानियों के ‘द्विज’, हुए हैं मेज़बाँ पहाड़

19 comments:

  1. थी मौसमों की मार तो बेशक बडी शदीद
    अब तक बने रहे हैं मगर सख़्त-जाँ पहाड़

    सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ
    ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़
    वाह लाजवाब शेर हैं। दाद देने के काबिल भी नहीं हूँ बस सूरज को दीप दिखा रही हूँ।

    पत्थर-सलेट में लुटा कर अस्थियाँ तमाम
    मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़

    वो तो रहेगा खोद कर उनकी जड़ें तमाम
    बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़

    सीनों से इनके बिजलियाँ,सड़कें गुज़र गईं
    वन, जीव, जन्तु, बर्फ़, हवा, अब कहाँ पहाड़

    ये शेर भी बहुत पसंद आये। आपकी शायरी को सलाम । आपकी पुस्तक ने इतनी प्रेरणा और मार्गदर्शन किया कि मै भी गज़ल सीखने को आतुर हो उठी। धन्यवाद आपका।

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  2. सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ
    ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़

    नदियों,सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद
    देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़

    वो तो रहेगा खोद कर उनकी जड़ें तमाम
    बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़

    बहुत ख़ूब!
    ये वैज्ञानिक ग़ज़ल जिसमें भावनाओं का भी समावेश है प्रभावित करती है ,बधाई

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  3. आपकी ये ग़ज़ल तस्‍दीक करती है कि ग़ज़ल अब अपने पारंपरिक रूप से बहुत आगे निकल चुकी है। पहाड़ का पर्यावरणीय रूप इस समग्रता में प्रस्‍तुत कर ग़जल को एक नया आयाम दे दिया आपने।
    बधाई।

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  4. एक मुकम्मल ग़ज़ल...हम जैसे ग़ज़ल कहना सीखने वालों के लिए एक बेहतरीन तोहफा...पहाड़ के दुःख दर्द को पूरी तरह समेटती ये ग़ज़ल बेमिसाल है...आपको पढना हमेशा सुकून देता है...लिखते रहें..
    नीरज

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  5. Waqayi,pahaadon pe aisi gazal pahli baar padhi...paryawaran ko raudta hua aadmi..use bezubaan pahad kya kahen?Apna raudr roop kabhi to qudrat dikha hi degi,kabtak atyachar sahegi?

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  6. Pranaam sir,

    pahaRon ka dard byan kartii khoobsurat ghazal ke liye, dhanyvaad

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  7. niiraj jii ne man kii baat kah di.............pahado ka dard bakhubi bayan kar diya.

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  8. बहुत खूबसूरती से पहाड़ों का दर्द बयां किया है...

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  9. द्विज साहब...आदाब
    थी मौसमों की मार तो बेशक बडी शदीद
    अब तक बने रहे हैं मगर सख़्त-जाँ पहाड़

    सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ
    ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़
    बस...इन दो शेरों को पढ़कर....
    सच मानिए...आगे बढ़ा ही नहीं जा रहा है.
    बाक़ी शेर भी कमतर नहीं होंगे....
    लेकिन उन पर टिप्पणी फिर कभी
    अभी तो इनके खुमार से उबर जाने की मोहलत चाहिए.

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  10. pahadon ke dard ko bayan karti ek baehad khoobsoorar ghazal ... baar baar padhne ko jee karta h.. abhaar.

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  11. पूरी की पूरी ग़ज़ल लाजवाब है हर शेर दाद के काबिल है पर मेरे मन में जो घर कर गया वो
    " कचरा,कबाड़,प्लास्टिक उपहार में मिले
    सैलानियों के ‘द्विज’, हुए हैं मेज़बाँ पहाड़"

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  12. हैं तो बुलन्द हौसलों के तर्जुमाँ पहाड़
    पर बेबसी के भी बने हैं कारवाँ पहाड़

    नदियों,सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद
    देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़

    वो तो रहेगा खोद कर उनकी जड़ें तमाम
    बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़

    aise aise qeemtee ashaar
    kisi khaas saliqe mei keh denaa
    to janaab 'DWIJ' sahab ka hi kamaal ho saktaa hai .... gzl ki shaili bahut hi prabhaavshali hai...aur kahee gaee baat sabhi padhne waaloN tk aasaani se pahunch rahi hai
    ek umdaa , meaari aur sachet gazal
    kehne par dheroN mubarakbaad .

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  13. पत्थर-सलेट में लुटा कर अस्थियाँ तमाम
    मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़

    नदियों,सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद
    देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़ ..

    आपके अंदाज़ का शुरू से ही दीवाना हूँ ... बहुत लाजवाब शेर कहते हैं आप ... शेर पढ़ते हुवे आपकी फोटो की कल्पना से आपको बोलते हुवे महसूस करता हूँ ... कभी अपनी आवाज़ में ग़ज़ल लगाएँगे तो मज़ा दोगुना हो जाएगा ....

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  14. मुक्तिबोध ने साहित्य को संवेदनात्मक ज्ञान कहा है, आप उसे सही साबित कर रहे हैं। बधाई।

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  15. इस गज़ल में बहुत जान है - आत्मा है. ईश्वर आपको ऐसी और इससे भी बेहतरीन अभिव्यक्ति का जरिया बनाए - यही शुभकामना है. उत्तम और सुगठित - सुन्दर - जीवंत व सजग रचनाशीलता बनी रहे...!

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  16. द्विज जी,
    गज़ल बहुत पसंद आई..

    सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ
    ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़

    कचरा,कबाड़,प्लास्टिक उपहार में मिले
    सैलानियों के ‘द्विज’, हुए हैं मेज़बाँ पहाड़

    बहुत ही बढ़िया..

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  17. सीने सुलग के हो रहे होंगे धुआँ-धुआँ
    ज्वालामुखी तभी तो हुए बेज़बाँ पहाड़

    पत्थर-सलेट में लुटा कर अस्थियाँ तमाम
    मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़

    आज यहां तक पहंची...अच्छा लगा पर कोई नई पोस्ट नहीं मिली....

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