Friday, November 14, 2008

'जन-गण-मन' पर प्रख्यात शायर डा० शबाब ललित :
दायित्व बोध को झंकृत करती ग़ज़लें— डा० शबाब ललित

'जन-गण-मन' युवा कवि द्विजेन्द्र 'द्विज' की छ्प्पन ग़ज़लों का अनुपम संग्रह है । 'द्विज' के पिता स्वर्गीय मनोहर शर्मा 'साग़र' पालमपुरी उर्दू और पहाड़ी काव्य के मैदान के सुप्रसिद्ध शह सवार थे । स्पष्ट है कि 'द्विज' का लालन—पालन एक सुलझे हुए साहित्य प्रेमी घराने में हुआ और उसके व्यक्तित्व एवं संस्कारों का ख़मीर विशुद्ध साहित्यिक माहौल की छाया में उठा ।
'द्विज' पर्वतवासी हैं । उनके बचपन और यौवन के माहो-साल पर्वत के रम्य , रुचिकर और प्रेम पोषक मंज़रों की गोद में बीते जहाँ क़दम-क़दम पर रूप का जादू, और रोमांस का माधुर्य मन को गुदगुदाता है। ऐसे माहौल में बढ़े-पले शायर के कलम से यद्यपि मैंहदी की तिलिस्मी सुगंध और ठण्डे चश्मों की लहरों के कोमल स्पर्श का एहसास जागना स्वाभविक एवं अपेक्षित था परंतु 'द्विज' की रचनाओं में इस एहसास की जगह यथार्थ के निश्तर की काट अधिक नुमायाँ है । ऐसा लगता है कि फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' की मशहूरे-ज़माना काव्य पँक्ति—'और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा'—ने 'द्विज' की काव्य यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया है। 'जन-गण-मन' का कवि सपनों के विलास महल में चैन की बाँसुरी बजाने के बजाए यथार्थ की संगलाख़ चट्टानों की तपिश भोगता और इस ऊष्णता से पसीने में नहाए आम आदमी के दुख, दर्द एवं यातना को बाँटता कलमकार है । पर्वत के आम आदमी की ज़िन्दगी उसके लिए खुली किताब है। वह स्वयं यह सच्चाई स्वीकार करता है :

'ये मनोरंजन नहीं करती
क्योंकि ये ग़ज़लें व्यथाएँ हैं।'

अत: उसके शेरों में जिस जग बीती का उल्लेख है वह उसकी आपबीती भी है। ग़ज़ल के माध्यम से 'द्विज' ने इस विशाल भारत भूखण्ड की बहुसंख्यक जनता की ,जो ग़रीबी रेखा से नीचे गुज़र-बसर कर रही है, आकांक्षाओं, उत्कंठाओं , समस्याओं और पीड़ाओं को वाणी दी है। जब आम आदमी की संवेदनाओं के प्रति जन प्रतिनिधियों की उदासीनता और स्वार्थी वृत्ति से उसका कवि हृदय संतप्त एवं आन्दोलित होता है तो झुंझला कर अपने शेरों को व्यंग्य वाण बना लेता है। निर्धनता,बेरोज़गारी और अभावों की व्यथा शायर की नींद हराम कर देती है जिनके सर छुपाने को छत नहीं और जो भूख और बदहाली से परेशान हैं । तब 'द्विज' कह उठता है :

'भूख है तो मरो भूख से
ऐसे भी हल निकाले गये

'देख, ऐसे सवाल रहने दे
बेघरों का ख़याल रहने दे

इनके होने का कुछ भरम तो रहे
इनपे इतनी तो खाल रहने दे

भूल जाएँ न बिन तेरे जीना
बस्तियों में बवाल रहने दे

ना—बराबरी,धन और सुविधाओं की न्याय—असंगत बाँट, पूँजीपतियों और राजनेताओं की साज़िशी मिलीभगत, काले धन के ख़ुदाओं और बाहुबली अपराधी तब्के की सीनाज़ोरी, अत्याचार,अंधेरगर्दी और ला—क़ानूनी को देखकर कवि का मन तड़प उठता है तो 'जन-गण-मन' के प्रवक्ता कवि के अधरों पर मन का उबाल यों आता है:
'टूटे छप्पर,
सर पर सावन

निर्वासित है
क्यों 'जन-गण-मन'?

क्यों खलनायक
का अभिनंदन

सारी गर्मी कुछ लोगों ने भर ली अपने झोलों में
अपने हिस्से में आई है ले देकर बर्फ़ानी रात

खोदता है वो खाइयाँ अक्सर
लोग कहते हैं पुल बनाता

घाट था सबके लिए फिर भी न जाने क्यों वहाँ
कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन-चुन के नहलाए गए

खाई को पुल बनाने और बताने वाले पाखंडियॊं के ढोल का पोल खोलते हुए कवि यथार्थ से पर्दा उठाता है और कहता है:

वो अपने आप को कहते हैं मील के पत्थर
मुसाफ़िरों को वो रस्ता सही नहीं देते ।

बयान अम्न के खेतों में आग के गोले
समझ में आई नहीं बात दोग़ली बाबा!

आँख मूँदे जिस डगर पर आपके पीछे चले
आँख खोली तो यह जाना यह सड़क तो खाई है

यह अनासिर(तत्व) जन गण को धर्म,भाषा ,जाति-पाँति के नाम पर तो कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर भिड़ा कर अपना उल्लू सीधा करते हैं तो कवि आम नागरिक को सचेत करने के साथ-साथ इन 'गंदुम नुमा, जौ फ़िरोश' मक्कारों से बरगला कहता है :

'तुम्हारे ख़्वाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद हैं
हमारे ख़्वाब में 'द्विज' सिर्फ़ रोटी-दाल बसते हैं।'

'बने हैं पढ़ के जिसे आज वो वली बाबा !
किताब आज वो हमने भी बाँच ली बाबा !'

इन स्वार्थी शातिरों को वह जनता के मन के उबाल और आक्रोश से आगाह करता हुआ चेतावनी देता है:

स्वार्थों के रास्ते चल कर
डगमगाती आस्थाएँ हैं ।

फूल हैं हाथों में लोगों के
पर दिलों में बद्दुआएँ है

चुप्पियाँ जिस दिन ख़बतर हो जाएँगी
हस्तियाँ सब दर-ब-दर हो जाएँगी

जिस राजतंत्र में जन सेवा के नाम पर जन शोषण और राजनीति के ठेके द्वारा लूट जारी हो वहाँ दिन पलटने की यह आस बनाए रखना गनीमत है क्यों कि आशा ही जीवन का अवलंब है और इसी आशा के बलबूते पर ही कवि जनता और देश के दुश्मनों से कहता है:
'द्विज' की ग़ज़ल की शैली सरल और स्पष्ट है । उर्दू के तथाकथित 'जदीद' शायरों की भाँति वह पाठक को अजनबी बिम्बों और उलझे-धुँधले प्रतीकों की भूल-भुलैयाँ में नहीं डालते। न ही वह कठिन शब्दावली का प्रयोग करके अपनी विद्वता का सिक्का जमाने और पाठक को शब्दकोश खोल कर शे'र समझने पर मजबूर करते हैं, न पेचीदा संधिबद्ध वाक्यों से अपने शेरों को बोझिल बनाते हैं ।

'द्विज' की ग़ज़ल में उर्दू-हिन्दी शब्दावली का सुन्दर और सटीक मिश्रण मन को मोहता है और शेरों की प्रभाव-क्षमता में इज़ाफ़ा करता है। उसकी ग़ज़ल समकालीन चुनौतियों और नये सरोकारों की प्रतिक्रिया ही है और माँगपूर्ति भी और सचमुच ही जन-गण-मन का प्रतिबिम्ब भी। यह जनमानस की स्वाभाविक, मनोवैज्ञानिक, सांसारिक समस्याओं, चिंताओं, बाधाओं, और निराशाओं को दर्पण दिखाती रचनाएँ हैं जो साम्प्रदायिकता,संकुचित निजी स्वार्थों,लूट-खसूट,भ्रष्टाचार और अपराधिक वृत्ति से ग्रस्त तथा दूषित राजनैतिक माहौल पर खुल कर प्रहार करती हैं ।
कवि कहीं भी निजी स्वार्थ या अवसरवादिता के प्रभाव में आकर सत्यवादिता से पीछे हटता नहीं दिखता । उसका उद्घोष है:
आपका हर शब्द इक तहरीक होना चाहिए
साथियो ! वक्तव्य को निर्भीक होना चाहिए
'द्विज' का यह ग़ज़ल संकलन आम इंसान के ज़ख़्मों का जलूस है जिसकी बाबत उसने स्वयं कहा है:
अपने दिल के ज़ख़्मों-सी
काग़ज़ पर फुलवारी कर
पुस्तक ख़ूबसूरत छपी है और कम्प्यूटिंग की ग़लतियों से पाक है। द्विज की यह बुलंद पाया कृति जन—गण—मन की गहन तवज्जुह की हक़दार है।
हिमप्रस्थ (अगस्त,२००३) से साभार

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