अपने आप को आईना दिखाती गजलें
हृदयेश मयंक
निरंतर लयहीन होते हुए जीवनानुभवों को शब्दों में बांधना आज के दौर में निहायत कठिन हो गया है। ऐसे में यदि कुछ लोग छान्दस अभिव्यक्तियाँ करने में सक्षम है तो उन्हें बधाई दी जानी चाहिए । यदा-कदा हिंदी की लघु पत्रिकाओं में जब गीत नवगीत देखने पढ़ने को मिल जाता है तो बहुत अच्छा लगता है। हाँ इन दिनों ग़ज़लें बहुतायत में पढ़ने को मिलती हैं । अधिकांश कवि शायर एकरसता में ग़ज़लें लिखने का प्रयास करते हैं। प्राय: पढ़ते हुए लगता है कि इस तरह के शेर पहले पढ़े हुए हैं । छंद विधान या मीटर भले ही अलग हो पर कथ्य बहु प्रचलित दिखाई पड़ते हैं । ऐसे में यदि कोई अलग कथ्य, अलग मिज़ाज और अलग ज़मीन लिए हुए दिखाई पड़ता है तब वह अनायास ही पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। द्विजेंद्र द्विज एक ऐसा ही चर्चित नाम है जो हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं में अपना एक अलग पाठक वर्ग तैयार किए हुए है।
हाल ही में द्विजेंद्र द्विज की छप्पन जन-गण-मन में पढ़ने को मिलीं। ग़ज़ल लेखन में रुचि होने की वजह से एक बार बारगी सारी ग़ज़लें पढ़ गया। इन गजलों के बीच से गुज़रते हुए एक नये तरह के अनुभवों से साक्षात्कार हुआ । ये अनुभव एक अँग्रेज़ी के प्राध्यापक के ही नहीं है वरन लाखों-करोड़ों शोषित पीड़ित उस जनमन के हैं जिनके सपने उदास होकर टूट चुके हैं, आँखें सहमी हैं। वे सभी भौचक हैं कि यह क्या हो रहा है। समाज में जो कुछ घटित हो रहा है वह कल्पनातीत है। देखते ही देखते यह क्या से क्या हो गया है । सब कुछ हासिल कर लेने का एक पागलपन आज के युवा वर्ग में दिखलाई पड़ता है। मध्यवर्ग आज़ादी के बाद के छलावों से अभी उबर भी नहीं पाया था कि नये उदारीकरण व बाज़ारवाद ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा, कवि ने इस पीड़ा को एक जीवंत स्वर दिया है:
सूरज डूबा है आँखों में आज है फिर सँवलाई शाम
सन्नाटे के शोर में सहमी बैठी है पथराई शाम
साया साया बाँट रहा है दहशत घर-घर बस्ती में
सहमी आँखें टूटे सपने और एक पगलाई शाम(पृष्ठ-54)
इन ग़ज़लों में एक ओर जहाँ पहाड़ का सौंदर्य है वहीं उसकी बेज़ुबानी भी बयां होती है । प्राकृतिक संपदा के दोहन और उसकी ओर अनदेखी करने वाली व्यवस्था के प्रति कवि का आक्रोश दिखलाई पड़ता है । पर्यावरण की दुहाई के बावजूद प्राकृतिक स्थलों , नदियों , झीलों के आसपास कचरा प्लास्टिक थैलियों का उपहार पर्यटक धड़ल्ले से छोड़ते नजर आते हैं । विषय सड़कों के निर्माण का हो या फिर नये भवनों के निर्माण का, शहर सदैव पहाड़ों की ओर ही बढ़ते हैं । उन्हें काटना शहरी विकास की पहचान बन गई है। कवि मानो इस प्रवृत्ति पर अपना आक्रोश इस तरह व्यक्त करता है :
न भूलो तुमने ये ऊँचाइयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा कद नहीं लेते तो आदम क़द नहीं होते(पृष्ठ-2)
इतिहास साक्षी है कि जब जब राजनीति दिशाहीन होती रही है तब-तब कवियों, लेखकों , कलमकारों ने राजनीति और समाज दोनों को दिशा देने का काम किया है । भले ही सदैव सत्ता व व्यवस्था की नजरों में तिरस्कृत रहे हों। आपातकाल का ख़ामियाज़ा कलमकारों ने जमकर भोगा था। फिर भी हम हैं तो हैं । बक़ौल द्विजेंद्र द्विज :
बंद कमरों के लिए ताजा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियाँ हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम (पृष्ठ-3)
उपभोक्तावाद ने एक नई तरह की दलाल संस्कृति को जन्म दिया है। जिस वर्ग को देखो वही चाटुकारिता, मक्कारी व दलाली में लिप्त दिखाई पड़ता है । झूठ और फ़रेब की एक नई दुनिया रच दी गई है। अनेक प्रलोभन आए दिन परोसे जा रहे हैं एक नया वर्ग रातों-रात अपनी अलग पहचान बना रहा है। उसी की नकल में सारे लोग व्यस्त हैं। वर्गीय चेतना लुप्त हो गई है परिणामत: आंदोलनकारी ताक़तें कमज़ोर हो गई हैं । सरकारी स्तर पर विकास का लॉलीपॉप दिखाया जा रहा है। मीडिया यक़ीन दिलाने में व्यस्त है। सच यह है कि सारी सुविधाएं राज महल की ओर जा रही हैं। पगडंडियों मानचित्र से ग़ायब हो रही हैं। एक सन्नाटा चारों और पसरा हुआ है आक्रोश करीब करीब ग़ायब है । शायर कहता है :
तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को
अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता ?(पृष्ठ- 4)
द्विजेंद्र के यहां कुछ अलग, बिल्कुल अलग अभिव्यक्तियाँ हैं। एक दिलासा भी है कि जिन लोगों ने संघर्ष द्वारा कुछ हासिल किया है वे उजालों के बरक्स अँधेरों का साथ नहीं देंगे। काश ऐसा हो पाता। समाज में रातों-रात पनपे दोग़ले नवधनिकों ने नैतिकता के सारे मानदंडों को ताक पर रख दिया है। झूठ और लूट की बुनियाद पर विकास की जो इबारत लिखी जा रही है वह फ़रेब के सिवा कुछ भी नहीं ।
पूंजीवादी जनतांत्रिक व्यवस्था एक नई गुलामी की ओर अग्रसर है। चंद लफ़्ज़ , चंद आक्रोश के स्वर चंद अशआर हमारी भावना हो सकते हैं पर यह पर्याप्त नहीं है साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए। फिर भी द्विजेंद्र को दाद दी जानी चाहिए इस तरह के शेरों के लिए:
अँधेरे बाँटना तो आपकी फितरत में शामिल है
उजालों का हमारे गीत में उल्लास लिक्खा है (पृष्ठ-9)
द्विजेंद्र के यहाँ सिर्फ़ आँखों देखा या कानो सुना नहीं है। वह नये जतन की भी बात करते हैं। व्यवस्था में बदलाव तभी संभव है जब एकजुट होकर संयुक्त प्रयास किए जाएं। द्विजेंद्र का यह शे'र उनके इसी ख़याल द्योतक है:
जब धुआं सांस की चौखट पर ठहर जाता है
तब हवाओं को बुलाने का जतन होता है (पृष्ठ-13)
सवाल ज़िन्दगी के टालना नहीं अच्छा
दो टूक बात करो फैसलों की भाषा में(पृष्ठ-14)
द्विजेंद्र राजनीति के गलियारों की भी खोज खबर लेते हैं । झूठे आश्वासनों, भाई भतीजावाद , जाति और मज़हबों पर आधारित राजनीति की चुटकी कुछ इस तरह से लेते हैं ;
वो आ गया है हमें अब तसल्लियाँ देगा
हमारा आग में जलता मकाँ नहीं देखा (पृष्ठ-19)
आज के इस दौर में जहाँ कुछ भी बेचा खरीदा जा सकता है, कलमें भी आसानी से बेची व ख़रीदी जा रही हैं । समाज के अन्य वर्गों की तरह यह वर्ग भी सत्तामुखी हो गया है । तमाम पुरस्कार व राजकीय सम्मानों की बन्दरबाँट हो रही है, ऐसे में ईमानदार लेखक उस सामान्य जन की तरह है जो तमाम सुविधाओं से वंचित व समय की चकाचौंध में अपने आप को छलित मान रहा है। कवि द्विज इन उपेक्षितों की तरफ़ से ठीक ही तो कह रहे हैं :
सर झुकाया, बंदगी की, देवता माना जिन्हें ,
वे रहे अक्सर हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़ (पृष्ठ-27)
आश्वासन भूख बेकारी घुटन धोखाधड़ी
हां यही सब तो दिया है आप के विश्वास ने (पृष्ठ 28)
कुल मिलाकर यह गजलें हमें हमारे समय से रूबरू कराती हैं । आईने की तरह हमें हमारा ही चेहरा दिखाती हैं । हिंदी और उर्दू ग़ज़लों को कुछ लोग बांट कर अलग-अलग देखना चाहते हैं। हमें समझ में नहीं आता कि वह वास्तव में क्या चाहते हैं। गीत व कविता की समृद्ध परंपरा में ग़ज़लें नए फूलों की तरह ऐसे ही नहीं उग आई हैं। उन्हें बड़े जतन से उगाया गया है। खून और पसीने से सींचा जा रहा है। इन ख़ूबसूरत अभिव्यक्तियों के लिए रचनाकारों को साधुवाद दिया जाना चाहिए न कि हिंदी व उर्दू को अलग-अलग बाँटकर देखने वाली राजनीति के सांप्रदायिक रुझान को स्वर दिया जाना चाहिए। यह न तो यह कविता के लिए अच्छा है और न ही हमारे समय के लिए । यह समय वैसे भी इतने खेमों में विभाजित है, इतनी दीवारें पहले ही खड़ी कर दी गई हैं, जिन्हें तोड़ना लगभग नामुमकिन सा दिखलाई पड़ता है। द्विजेंद्र द्विज जैसे कवि हिंदी और उर्दू के बीच सेतु का काम कर रहे हैं यह सुकून की बात है।
समीक्षक: हृदयेश मयंक , सम्पादक : चिन्तन दिशा मुंबई
साभार: हिमाचल मित्र /आस्वाद और परख /शरद अंक द्वैमासिक अक्टूबर- 2007/ मार्च-2008
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