Saturday, February 13, 2021

यही सड़क तो घर और आसमां छत है

यही सड़क तो घर और आसमां छत है 

  आज के दौर में ग़ज़ल की बढ़ती लोकप्रियता ने हिन्दी कवियों को भी ग़ज़ल लेखन की ओर आकर्षित किया है, मगर हिन्दी में ग़ज़ल नाम से आजकल जो कुछ लिखा जा रहा है, उसे देख कर लग रहा है, जैसे हिन्दी ग़ज़ल का भविष्य बहुत अंधकारमय है, लेकिन द्विजेंद्र द्विज की ग़ज़लें इस तथ्य को झुठलाती हैं। द्विज वर्तमान पीढ़ी के एक ऐसे होनहार ग़ज़लकार हैं जिन्होंने ग़ज़ल के छंद शास्त्र को आत्मसात करने की साधना की है । इनकी ग़ज़लें ग़ज़ल की अवधारणा के अनुरूप भाषिक एवं साहित्यिक संस्कृति का निर्माण करती हैं। तलफ़्फ़ुज़ की जानकारी सही लफ्ज़ को को सही तरीके से इस्तेमाल करने की तमीज़ जन- गण -मन की ग़ज़लों की एक बेजोड़ ख़ासियत कही जा सकती है ।

 यहाँ यह बताना बेहद ज़रूरी लगता है कि उर्दू ग़ज़ल की समृद्ध परंपरा के परिपेक्ष्य में हिंदी में लिखी जा रही ग़ज़लों को उन उर्दू ग़ज़लों के साथ रखकर अगर देखा जाएगा तो हिंदी में ग़ज़ल की पहचान का संकट पैदा हो जाएगा। हिंदी में एक सफल गजलकार दुष्यंत कुमार हुए हैं, कुछ और दुष्यंत अभी पैदा होने बाकी हैं । हिंदी ग़ज़ल के पास एक विलक्षण समकालीन बोध है लेकिन शिल्प के लिए उर्दू की विरासत के साथ जुड़ना बाकी है। हिंदी के रचनाकारों के पास जागरूकता है, लगन है और उत्साह भी है। अतः इस आधार पर कहा जा सकता है की हिंदी ग़ज़ल का आने वाला कल काफी चमकदार और असरदार होगा इसमें कोई संदेह या सुलह नहीं । हिंदी गजल लेखन में अपनी पुख़्ता पहचान बनाने वाले हिमाचल के युवा कवि द्विजेंद्र द्विज का ग़ज़ल संग्रह जन- गण -मन मेरे हाथों में है । नए अंदाज में नए चिंतन का एक अद्वितीय दस्तावेज़ जहाँ विचार शैली में नई सोच के प्रमाण हैं, यथार्थ के आभास हैं और से और जिस में लेखकीय चुनौतियों को स्वीकारती हुई सामाजिक संपूर्णता की उपस्थितियाँ भी दर्ज है। कवि को पढ़ने के बाद ऐसा कुछ महसूस हुआ, मानो गजलकार ने जीवन में जो कुछ जिया है और जिसे उसने स्वयं भोगा है, उसे उसने पूरी ईमानदारी के साथ अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। उनके लेखन में सर्वत्र सहजता और स्वाभाविकता विद्यमान है । जन-गण-मन  सामान्यता इस तरह के नाम ग़ज़लों की पुस्तकों के नहीं होते मगर ग़ौर से देखें तो इस शीर्षक से बीज की गजलों के कथ्य और उनमें व्यक्त व्यथा और वेदना को समझा जा सकता है । द्विज की ग़ज़लियात अनेक पत्र-पत्रिकाओं में अभी भी दिखाई देती हैं और कवि सम्मेलनों व मुशायरों में अक्सर सुनाई पड़ती हैं और अब जन-गण-मन की मार्फ़त पाठक से रूबरू हैं। इन ग़ज़लों को पढ़ने से लगता है कि इनमें पारंपरिकता का रंग भी है और नयेपन की ख़ुशबू भी इनमें मौजूद है। पुस्तक में संकलित गजलों का कैनवास बहुत व्यापक है । एक अभिव्यक्ति अथवा एक बिंब से लेखक समूचे देश और काल की बात कर जाता है । बेशक बड़े सादा और सरल शब्दों में मगर एक निहायत ही ख़ूबसूरत और शानदार अंदाज के साथ: 

  तहजीब यह नई है इसको सलाम कहिए 
रावण जो सामने हो उसको भी राम कहिए
 
बदबू हो तेज़ फिर भी कहिये उसे न बदबू 
  अब हो गया है शायद हमको जुकाम कहिए 

  द्विज सद्र बज़्म के हैं वो जो कहें सो बेहतर
 बासी ग़ज़ल को उनकी ताजा कलाम कहिए (पृष्ठ 23)

जन- गण -मन की गजलों की एक अहम ख़ासियत यह भी है कि वह समय के सच के साथ साक्षात्कार करवाती हैं , आदमी को आदमियत का वास्ता वास्ता दिलवाती हैं और इंसानी जज़्बात का अहसास करवाती हैं: आईना खुद को समझते हैं बहुत लोग यहां आईना कौन है द्विज उनको दिखाने वाला इसके अलावा द्विज के ग़ज़ल संसार में आम आदमी का दिल भी धड़कता हुआ महसूस किया जा सकता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि आज नहीं तो कल साहित्य में इन ग़ज़लों की मूल्यवत्ता को अवश्य पहचाना जाएगा । इनकी सराहना होगी और इन ग़ज़लों पर सार्थक सार्थक चर्चाएँ भी होंगी। द्विज की ग़ज़ल रचना कहीं थमी नहीं, रुकी नहीं, थकी नहीं और अभी भी पूरी मुस्तैदी के साथ, पूरी संजीदगी और बुलंद हौसलों के साथ अपनी राह पर गामज़न है। अपनी ग़ज़ल में द्विज के पास अपने ख़ास जनवादी तेवर भी हैं, जो पाठक के दिल में उतर कर भारी हलचल पैदा करते हैं और वहां एक स्थाई असर छोड़ते हैं और वहाँ एक स्थायी असर छोड़ते हैं। , एक बानगी देखिए: 

  चलो फिर आज भी फ़ाक़े उबाल लेते हैं 
 अभी भी देर है फसलें बाहर आने में

 यही सड़क तो है घर और आसमां छत है 
 मिलेगा और भला क्या ग़रीबख़ाने में ( पृष्ठ 67) 

प्रस्तुत संग्रह को निश्चय ही इसलिए पठनीय और संग्रहणीय माना जा सकता है कि इस में संकलित ग़ज़लों के भीतर अनुभव की सच्चाई के साथ साथ, कल्पना के सूक्ष्म तंतुओं की ख़ूबसूरत बनावट भी मौजूद है । इन में सामाजिक यथार्थ का का चित्रण है और राजनीतिक व्यंग्य के तेज़ धारदार नश्तर भी हैं। ऐसी ही अपनी दूसरी ग़ज़लों में भी द्विज ने आम आदमी के दर्द को बड़ी शिद्दत के साथ महसूस किया है । उनकी व्यथाओं और वेदनाओं को पहचाना है और यथार्थ के धरातल पर उन्हें बड़ी संजीदगी के साथ समझने का प्रयास किया है। शायद यही वजह है कि उक्त संकलन की अधिकांश गजलें व्यक्ति के अंतस को उद्वेलित करती हैं। युगीन संदर्भों, सामाजिक विसंगतियों और माननीय विद्रूपताओं का इनमें यथार्थ चित्रण हुआ है। आम आदमी के संघर्ष और आक्रोश की पैरवी करते हुए द्विज कहते हैं: 

  जिन परिंदों के परों को कुंद कर डाला गया 
 जी रहे हैं टीस लेकर आज भी निवास की (पृष्ठ 37)

संकलन की इन गजलों में मानवीय संवेदना भावनाओं और विचारों को जिस बारीकी और काव्यगत कौशल के साथ अभिव्यक्त किया गया है निश्चय ही अतुलनीय है। वर्तमान सामाजिक विसंगतियों और मानवीय पीड़ाओं की टीस की अभिव्यक्ति ग़ज़लों को बेहद संवेदनशील और भावुकता युक्त बना देती है: 

 कहीं है खून के जोहड़ कहीं अंबार लाशों के
 समझ अब यह नहीं आता ये किस मंजिल के रास्ते हैं (पृष्ठ 24) 

 द्विज के इस ग़ज़ल संग्रह की कुछ ग़ज़लें हिमाचल के पहाड़ों के दर्द से भी वाबस्ता हैं। इन गजलों में पर्वत के जीवन की पीड़ाओं के बयान की मौजूदगी में कवि स्वयं भी उस पीड़ा को असंपृक्त नहीं है। पहाड़ के उस दर्द को वह ग़ज़ल के शिल्प में डालकर बयान करता है। कुल मिलाकर इन ग़ज़लों में मानवीय जीवन के विघटनकारी संदर्भों की व्याख्या है। आदमी की बेबसी, मजबूरी और घुटन का सपाट और बेबाक चित्रण है। संग्रह की लगभग सभी ग़ज़लें अंतस को उद्वेलित करती हैं। कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से द्विजेंद्र द्विज को एक श्रेष्ठ ग़ज़ल कार होने का हक़ हासिल है। हिंदी में ग़ज़ल उर्दू से और उर्दू में अरबी उत्स से निकल कर फारसी माध्यम से आई । ग़ज़ल के व्याकरण के मुताबिक द्विज की बह्रों पर पुख्ता पकड़ है , उन्हें नुक्ता की पहचान है वज़्न पर उसकी पकड़ है और शे'र में शेरियत पैदा करने की उसे महारत हासिल है । भाषिक संरचना के नज़रिए से द्विज के पास ग़ज़ल के लिए ऐसे अनेक शब्द है जिन्हें दूसरे कई ग़ज़लकार अमूमन अपनी ग़ज़ल में लाने से परहेज करते हैं जैसे उजाला, तम, शूल , सरोवर और शरण इत्यादि। उर्दू की कठिन शब्दावली कहीं-कहीं कुछ उलझन पैदा ज़रूर कर देती है लेकिन फ़ुटनोट्स में उनके अर्थ दे दिए गए हैं जिनसे अर्थ समझने में पैदा हुई रुकावट दूर हो जाती है । निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि जन-गण-मन एक अच्छी ग़ज़लकार का अच्छा ग़ज़ल संग्रह है अतः पठनीय है , संग्रहणीय है । भविष्य के लिए यह संग्रह आश्वस्त करता है यह ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में द्विज आने वाले वक़्त में यक़ीनन अपने लिए एक बढ़िया, उम्दा और शानदार मुकाम हासिल कर लेंगे।

  प्रो. चतुर सिंह अंबिका निवास हरिपुर मोहल्ला, नाहन (हिमाचल प्रदेश) 

  साभार: प्रतिबिम्ब: दैनिक दिव्य हिमाचल 1 जुलाई 2004

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