Wednesday, January 13, 2010

द्विजेंद्र ‘द्विज’ पर मशहूर शायर और अतिथि-सम्पादक ‘फ़िक्रो-फ़न’ सुरेश चन्द्र ‘शौक़’ शिमलवी

एक ताबनाक चिंगारी

नौजवान नस्ल के आतिशख़ाना से जो चिंगारियाँ निकल रही हैं, उनमें से एक निहायत ताबनाक (ज्योतिर्मयी) चिंगारी का नाम है द्विजेंद्र ‘द्विज’. अपनी इनफ़रादी (मौलिक) सोच और लबो-लहज़ा (कहन, कहने का ढँग) के सबब वो दूसरों से अलग नज़र आते हैं. उनके क़लाम में फ़िक्रो-अहसास की ताज़गी, अस्रे-हाज़िर (वर्तमान समय) के हालात की अक्कासी, इन्सानी दोस्ती का जज़्बा ख़ास तौर पर नुमायाँ है. वो अपने मुशाहदात (पर्यवेक्षण) तजरिबात(प्रयोग) और अहसासात(अनुभवों) को दिल की आँच में तपाकर निहायत पुरदर्द , पुरसोज़ और पुरअसर अंदाज़ में लफ़्ज़ों में पिरोते हैं. उनका फ़न(कला) मआनवीयत(अर्थपूर्णता), गहराई , सेहतमंदी और साफ़गोई (स्पष्टवादिता) का हामिल(पक्षधर) है. ख़ौफ़ो-हिरास (भय और त्रास) की धूल में लिपटा हुआ इंसान उनके अश’आर में बसा हुआ है.

द्विज’ ने ख़ुद को हमेशा असरी ज़िन्दगी (प्रभावी जीवन)के नज़दीक रखा है. वो अपने बेअमाँ(असुरक्षित) और बेदरमाँ(ला-इलाज) अह्द के मआशी(जीविका संबंधी) और मुआशरती इंतिशार (सह-अस्तित्व के बिखराव) और उसकी नफ़्सियाती(मनोवैज्ञानिक) और माद्दी (भौतिक)परीशानियों से आगाह हैं . वो अहद कि जिसमें पुरानी क़द्रों (मूल्यों)को ग्रहण लग चुका है और ज़ाती मफ़ादात(व्यक्तिगत लाभ) के लिए अख़लाक(चरित्र) और मरव्वत(संवेदना) को बाला-ए-ताक़ दिया गया है, उसकी खुलकर मज़म्मत(निंदा) करते हैं. उन्हें एक साफ़-सुथरे मुआशरे(समाज)की तलाश है. वो अम्नो-मुसावात(शांति और समानता) , भाईचारगी, फ़िरक़ावाराना-हमआहंगी (सांप्रदायिक सद्भाव) और जम्हूरी क़द्रों (लोकतांत्रिक मूल्यों) की बहाली के ख़्वाब देखते हैं और जब इन ख़्वाबों पर ज़र्ब पड़ती है तो उनकी शे’री सोच पर तल्ख़ी के अक़्स उभर आते हैं,लेकिन उनकी तल्ख़ी कड़वाहट में नहीं बदलती. वो ज़ख़्म-ख़ुर्दा(ज़ख़्म खाए हुए) हैं, मगर दिल-शिकस्ता नहीं. मायूसियों के सैलाब में भी अज़्मो-इस्तिकलाल(स्वाबलंबन का प्रण) रखते हैं. मताए-ख़ुदी(आत्म-सम्मान की दौलत)को हमेशा बरक़रार रखने में उनका यक़ीन है, जो उनकी ख़ुद्दार तबीयत का ग़म्माज़ है(परिचायक) . बिँधती हुई उँगलियों के बावजूद वो ज़िंदगी की क़मीज़ के टूटे हुए बटनों को टाँकने में मसरूफ़ हैं.

‘द्विज’ की शायरी ग़ैर-ज़रूरी सन्नाई(अनावश्यक कला-कर्म) से आरी (स्वतंत्र)है. ज़बान और लहज़ा नामानूस(अपरिचित) और मुबहम(अस्पष्ट) नहीं. उस्लूब(शैली) सादा, सलीस और आमफ़हम है.

मेरे हक़ीर ख़याल में एक अच्छे शे’र की अहम पहचान यही है कि वो सच्चा हो. ‘द्विज’ बज़ाते-ख़ुद सरापा महब्बत हैं और एक सच्चे इन्सान. उनका सुख-दुख भी सच्चा है. यही वजह है कि उनके शे’र सच्चे लगते हैं. वो दिन दूर नहीं कि जब अपनी इनफ़रादी(मौलिक) आन-बान और सच्चाई के बाइस(कारण) उनकी आवाज़ ग़ज़ल की भीड़ में दूर से पहचानी जाएगी.

सुरेश चन्द्र ‘शौक़’ शिमलवी
15 जनवरी,2003. शिमला

3 comments:

  1. मैं उन पर कुछ कहूँ तो सूरज को दीपक दिखाना होगा। उन्हों ने जब मुझे अपनी पुस्तक जन गण मन भेजी तो मुझे गज़ल के बारे मे ए बी सी भी नहीं आती थी मैं संकोच वश उनसे कुछ भी न कह सकी मगर तभी से मेरे मन मे गज़ल सीखने का जनून हुया पता नहीं था कि वो भी गज़ल सिखाते हैं तो मैने आदरणीय प्राण जी से सीखनी शुरू की है।ांउर अब तो सुबीर जी से भी बहुत कुछ सीख रही हूँ। द्विज जी की आभारी हूँ। इस सीखने की प्रक्रिया मे उनको भी श्रेय जाता है विस्मित होती हूँ उनकी गज़लें पढ कर उनके लिये बहुत बहुत शुभकामनायें। आपका धन्यवाद्

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  2. द्विज जी की शायरी लाजवाब है उसे शब्दों से नहीं आँका जा सकता सिर्फ दिल से महसूस किया जा सकता है...
    नीरज

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  3. बहुत अच्छे शायर हैं द्विज जी

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