Tuesday, June 22, 2010

एक सजग रचनाकार की संघर्ष चेतना का प्रतिरोधात्मक प्रतिज्ञापत्र

द्विज के ‘जन-गण-मन’ पर प्रख्यात समालोचक नचिकेता की समीक्षा

‘जन-गण-मन‘ द्विजेन्द्र द्विज की बेहतरीन छ्प्पन गज़लों का पहला संग्रह है। द्विजेन्द्र ‘द्विज’ उन गज़लकारों में से महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं जिन्हें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के जरिए इस पहले गज़ल संग्रह के प्रकाशन के पूर्व ही स्थापित ग़ज़लकार का दर्ज़ा मिल चुका है। दरअसल द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लों की बनावट और बुनावट अपने समकालीनों से बिल्कुल अलहदा है। द्विज के पास समकालीन यथार्थ की बहुस्तरीय संश्लिष्टता सार्थक अभिव्यक्ति देने में सक्षम भाषा है,जिसमें बिम्ब,प्रतीक और संकेतों के समन्वय और सामंजस्य की सघनता है। इसके बावजूद कहीं भी अमूर्त्तनता या अर्थहीनता का आभास नहीं मिलता।

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ के पास अपने समय और समाज के अंतर्विरोधों की भीतरी परतों को भी एक्स-रे की तरह परखने वाली सूक्षम अंतर्दृष्टि है। अपने समय की लहुलुहान हकीकत को उसमें संपूर्ण जटिलता में समग्रता के साथ व्यक्त करने की चुनौती स्वीकार करने में द्विजेन्द्र द्विज की गज़लों को कोई हिचक महसूस नहीं होती। परिणामत: उनकी ग़ज़लों से व्यापक मध्यवर्गीय जन-जीवन की त्रासदियों सामाजिक अंतर्विरोधों,राजनीतिक विसंगतियों आर्थिक असमानताओं मूल्य विघटन और सांस्कृतिक अवमूल्यन के कारणों को परखने में कोई चूक नहीं होती:

"आँखों पर बाँधी गईं ऐसी अँधेरी पट्टियाँ
घाटियों के सब सुनहरे दृश्य धुँधलाए गए

घाट था सब के लिए पर फिर भी जाने क्यों वहाँ
कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन -चुन के नहलाए गए

जब कहीं ख़तरा नहीं था आसमाँ भी साफ़ था
फिर परिंदे क्यों वहाँ सहमे हुए पाए गए"

अथवा

"सर से पाँवों तक अब भी हम भीगे हैं
कैसे छप्पर, कैसे उनके छाते हैं

सूखे में बरसात की बातें करते हैं
फिर भी पानी से वो क्यों डर जाते हैं"


रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में हम रोज़ देखते हैं कि हमारे सियासी रहनुमा हमें मुंगेरी लाल के हसीन सपने दिखला कर बहलाया करते हैं और हमें उनके शोषण के नापाक इरादों का पता तब चलता है जब हमारी साँसों में ताज़ा हवा की जगह कड़वा धुआँ भर जाता है। शोषक शासक वर्ग की इन रेशमी मगर ख़तरनाक हरकतों को द्विज की ग़ज़लें बेलौस ढंग से बेनक़ाब करती हैं:

"चंद ख्वाबों को हक़ीक़त में बदलने के लिए
कितने ख़्वाबों का वहाँ ग़बन होता है

जब धुआँ साँस की चौखट पे ठहर जाता है
तब हवाओं को बुलाने का जतन होता है

या

तुम्हारे आँसुओं को सोख लेगी आग दहशत की
तुम्हें पत्थर बना देंगे तुम्हें रोने नहीं देंगे

घड़ी भर के लिए जो नींद मानों मोल भी ले ली
भयानक ख़वाब तुमको चैन से सोने नहीं देंगे ."

आज की उपभोक्तावादी संस्कृति का सबसे ज़्यादा आक्रमण संवेदना पर ही हुआ है।संवेदन शून्य आत्मपरकता और स्वार्थपरकता की ऐसी भयानक आँधी चली है कि पूरी सदी ही पथरा गई-सी दृष्टिगोचर होती है। संवेदनहीन, स्पंदनविहीन इस अमानवीय यातनागृह से छुटकारा पाने की छटपटाहट द्विजेन्द्र द्विज की इन ग़ज़लों में शिद्दत के साथ और मार्मिक ढंग से मुखरित हुई है:

"ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ
यह सदी पत्थर-सी है, संवेदनाओं के ख़िलाफ़

ठीक भी होता नहीं मर भी नहीं पाता मरीज़
कीजिए कुछ तो दवा ऐसी दवाओं के ख़िलाफ़"


निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि द्विजेन्द्र द्विज मौजूदा दौर के सामाजिक यथार्थ और उसके अंतर्विरोधों की भीतरी परतों को सिर्फ़ उघारते भर नहीं अपितु नई समाज रचना के लिए संघर्षशील आवाम को एकजुट संघर्ष के वास्ते लामबद्ध करते हैं।इस लिए इनकी ग़ज़लों में ऐसा बहुत कुछ नवीन और मौलिक है जो केवल नएपन के इज़हार के लिए नहीं बल्कि अपने सामाजिक अनुभव को राजनीतिक विमर्श की शक्ल देने के सार्थक प्रयास का नतीजा मालूम होता है। अतएव द्विजेन्द्र द्विज की सार्थक ग़ज़लें अपने पाठकों की संवेदना के कोमल तंतुओं को केवल सहलाती, गुदगुदाती और रोमांचित ही नहीं करतीं प्रत्युत बेचैन भी करती हैं:

" जिया झुका के जो सर ज़िल्लतों में, ज़ुल्मों में
न हो वो क़त्ल कोई बेज़ुबाँ नहीं देखा

पिलाएगा तुझे पानी जो तेरे घर आकर
अभी किसी ने भी ऐसा कुआँ नहीं देखा"

अथवा

"धूप ख़यालों की खिलते ही वो भी आख़िर पिघलेंगे
बैठ गए हैं जमकर जो हिमपात हमारी यादों में

सह जाने का चुप रहने का मतलब यह बिल्कुल भी नहीं
पलता नहीं है कोई भी प्रतिघात हमारी यादों में"

द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लें, दरहक़ीक़त,समकालीन सामाजिक राजनीतिक वातावरण पर एक सजग रचनाकार की संघर्ष चेतना का प्रतिरोधात्मक प्रतिज्ञापत्र हैं \ कहीं यह आईना दिखाती हैं तो कहीं मुँह चिढ़ाती प्रतीत होती हैं कहीं पीड़ा है तो कहीं आक्रोश भी है। ये ग़ज़लें कही चेतावनी देती हैं तो कहीं चुनौती। कहीं अपील करती महसूस होती हैं तो कहीं संघर्ष का आह्वान करती।कहीं फटकार है तो कहीं दिलासा। कहीं सलाह है तो कहीं संवाद। कहीं रचनाकार का आत्मकथ्य नज़र आती हैं तो कहीं वक्तव्य भी। इन्हीं द्वन्द्वात्मक अंतर्विरोधों/मनस्थितियों की खुरदरी ज़मीन पर खड़ी हो कर द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लें अपने समय और समाज को और अधिक मनवीय बनाने के निमित्त संघर्षरत हैं ख़ूबसूरत अंदाज़े- बयाँ में नुमाया द्विजेन्द्र द्विज की ग़ज़लों की वैचारिक अंतर्वस्तु जितनी पुख़्ता और मज़बूत है, प्रभावी अंतर्वस्तु फाँक भी उतनी ही अधिक चौड़ी है।


साभार: कृष्णानंद कृष्ण के संपादन में पटना से प्रकाशित पत्रिका पुन: (अंक-१५, नवम्बर-२००३)

2 comments:

  1. द्विज जी की ग़ज़लें, आम आदमी से जुडी, आज के हालात को बयां करती ग़ज़लें है. एकदम सरल भाषा में कही ग़ज़लें जो सीधा दिल पर असर करती हैं. सच्ची शायरी के यही पहचान है. जो दिल पे असर करे वोही सच्चा शेर है और द्विज जी की हर गज़ल का हर शेर दिल पर असर करता है और सोचने पर मजबूर करता है. द्विज जी आज के दौर के महान शायरों में से एक हैं.

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  2. घाट था सब के लिए पर फिर भी जाने क्यों वहाँ
    कुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन -चुन के नहलाए गए।

    - नीलंम अंशु

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