द्विजेन्द्र ’द्विज’ के ग़ज़ल संग्रह ‘जन-गण-मन’ पर सुविख्यात ग़ज़लकार एवं छंद शास्त्री श्री आर.पी.शर्मा ‘महर्षि’ :
दुष्यंत-देवांश प्रकाशन, अशोक लाज, मारण्डा(हिमाचल प्रदेश) से प्रकाशित द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लों का संग्रह जन-गण-मन पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ । इस पुस्तक में उनकी छप्पन ग़ज़लें संग्रहीत हैं,मानो ‘द्विज’ जी ने ठाकुर जी को लगाए ‘छप्पन भोग’ को प्रसाद के रूप में हमें बाँटा हो। ग़ज़लकार ज़हीर कुरेशी द्वारा लिखित इस संग्रह की विशद भूमिका से ज्ञात हुआ है कि ‘द्विज’ इसलिए भी उल्लेखनीय ग़ज़लगो हैं क्योंकि वे विगत तेईस वर्षों से मारंडा (पालमपुर),रोहड़ू, हमीरपुर,काँगड़ा और धर्मशाला जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते हुए अच्छी ग़ज़लें कह रहे हैं,जहाँ वस्तुत: ग़ज़लगोई का कोई उत्साहवर्धक माहोल नहीं है। ज़हीर जी ने इस संबंध में एक मौके का शेर भी प्रस्तुत किया है:
‘ये फूल सख़्त चट्टानों के बीच खिलते हैं
ये वो नहीं जिन्हें माली की देखभाल लगे’
पर्वतों, चट्टानों की बात बात आई तो द्विजेन्द्र जी का यह शेर भी दृष्टव्य है:
‘पर्वतों जैसी व्यथाएँ हैं
पत्थरों से प्रार्थनाएँ हैं’
इस संग्रह की उनकी पहली ग़ज़ल भी पहाड़ों को ही समर्पित है,ग़ज़ल के सभी शेर अच्छे बन पड़े है, जिनमें से कुछ निम्नानुसार हैं:
नदियों सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद
देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़
वो तो रहेगा खोदकर उनकी जड़े तमाम
बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़
कचरा व प्लास्टिक मिलें उपहार में इन्हें
सैलानियों के ‘द्विज’ हुए हैं मेज़बाँ पहाड़’
यहाँ प्रसंगवश हिमाचल के ख्याति प्राप्त शायर एवं ग़ज़लकार डा. शबाब ललित (शिमला) का एक शेर याद आ रहा है,जिसमें उन्होंने बर्फ़ से ढकी पहाड़ियों का चित्रण कुछ इस प्रकार किया है:
‘तेरा पत्थर-सा दिल भी पिघल जाएगा
प्यार की आँच इन बर्फ़ज़ारों में है’
इसी प्रकार का उनका एक अन्य शेर भी है-
‘रास हम परदेसियों को आ गई
पर्वतों की सर्द बर्फ़ीली हवा’
‘द्विज’ की ग़ज़लों में जहाँ भी हिन्दी-उर्दू शब्दों का मिश्रण हुआ है, समुचित अनुपात में हुआ है,जैसे—
‘फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदंडों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते’
‘अंगद’ यहाँ पौराणिक मिथक के रूप में शेर को और भी अर्थपूर्ण एवं व्यापक बना देता है,साथ ही यह अपनी संस्कृति से जुड़ने का परिचायक भी है।
‘द्विज’ ने् ग़ज़लों नए-नए शब्द और अर्थ देने का भी अच्छा प्रयास किया है:
‘रोज़ कितने ही उजालों का दहन होता है
लोग कहते हैं यहाँ रोज़ हवन होता है’
‘रहे न व्यर्थ ही चुप ठूँठ बूढ़े पेड़ों के
सुलग उठे वही दावानलों की भाषा में’
‘जो लड़ें जीवन की सब संभावनाओं के ख़िलाफ़
हम हमेशा ही रहे उन भूमिकाओं के खिलाफ़’
‘आदमी से आदमी दीपक से दीपक दूर हों
आजकी ग़ज़लें हैं ऐसी वर्जनाओं के ख़िलाफ़’
‘पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
ख़ास जो संदर्भ थे केवल वो झुठलाए गए’
‘द्विज’ के कुछ बहुत ही मार्मिक शेर ये भी:
‘सूरज का एहतराम किया उसने उम्र भर
जिसका कहीं भी धूप की बस्ती में घर न था’
‘अभागे लोग हैं कितने इसी संपन्न बस्ती में
अभावों के जिन्हें हरपल भयानक साँप डसते हैं’
मंदिर् और मस्जिद के झगड़ों पर करारी चोट करते हुए ‘द्विज’ कहते हैं:
“तुम्हारे ख़्बाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद हैं
हमारे ख़्वाब में ‘द्विज’ सिर्फ़ रोटी —दाल बसते हैं’
‘द्विज’ की ग़ज़लों की भाषा गंगा-जमुनी है, वे दोनों ही भाषाओं को समान सम्मान देते हैं,उन्होंने अपनी ग़ज़लो में जहाँ उर्दू बहरों का प्रयोग किया है ,वहीं कुछ ग़ज़लें ऐसी भी हैं जो हिन्दी छंदों में कही गई हैं। जैसे:
‘जीवन के हर मोड़ पर अब तो संदेहों का साया है
नफ़रत की तहज़ीब ने अपना रंग अजब दिखलाया है
ये पंक्तियाँ राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की निम्न्लिखित पंक्तियों की तर्ज़ पर हैं:
‘चारू चंद्र की चंचल किरणें ,खेल रही हैं जल-थल में
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अंबर तल में’
(मात्रिक समछंद ताटंक/लानवी,प्रति चरण सोलह: चौदह मात्राएँ। पर+अब= परब में संधि है तथा ’ने’
लघु उच्चारित हो रहा है।)
समग्र रूप में ‘द्विज’ की ग़ज़लें सुरुचिपूर्ण और समय की माँग के अनुसार हैं,पाठक उनकी ग़ज़लों को चाव से पढ़ेंगे,इसलिए कि,उनमें उन्हें भरपूर तग़ज़्ज़ुल मिलेगा। ग़ज़ल संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है। उनकी लेखनी दिन—प्रति सशक्त हो! यही हमारी मंगल कामना है।
मासिक साहित्य क्रांति—गुना (म.प्र). [अंक— दिसम्बर२००३] से साभार
दुष्यंत-देवांश प्रकाशन, अशोक लाज, मारण्डा(हिमाचल प्रदेश) से प्रकाशित द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लों का संग्रह जन-गण-मन पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ । इस पुस्तक में उनकी छप्पन ग़ज़लें संग्रहीत हैं,मानो ‘द्विज’ जी ने ठाकुर जी को लगाए ‘छप्पन भोग’ को प्रसाद के रूप में हमें बाँटा हो। ग़ज़लकार ज़हीर कुरेशी द्वारा लिखित इस संग्रह की विशद भूमिका से ज्ञात हुआ है कि ‘द्विज’ इसलिए भी उल्लेखनीय ग़ज़लगो हैं क्योंकि वे विगत तेईस वर्षों से मारंडा (पालमपुर),रोहड़ू, हमीरपुर,काँगड़ा और धर्मशाला जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते हुए अच्छी ग़ज़लें कह रहे हैं,जहाँ वस्तुत: ग़ज़लगोई का कोई उत्साहवर्धक माहोल नहीं है। ज़हीर जी ने इस संबंध में एक मौके का शेर भी प्रस्तुत किया है:
‘ये फूल सख़्त चट्टानों के बीच खिलते हैं
ये वो नहीं जिन्हें माली की देखभाल लगे’
पर्वतों, चट्टानों की बात बात आई तो द्विजेन्द्र जी का यह शेर भी दृष्टव्य है:
‘पर्वतों जैसी व्यथाएँ हैं
पत्थरों से प्रार्थनाएँ हैं’
इस संग्रह की उनकी पहली ग़ज़ल भी पहाड़ों को ही समर्पित है,ग़ज़ल के सभी शेर अच्छे बन पड़े है, जिनमें से कुछ निम्नानुसार हैं:
नदियों सरोवरों का भी होता कहाँ वजूद
देते न बादलों को जो तर्ज़े-बयाँ पहाड़
वो तो रहेगा खोदकर उनकी जड़े तमाम
बेशक रहे हैं आदमी के सायबाँ पहाड़
कचरा व प्लास्टिक मिलें उपहार में इन्हें
सैलानियों के ‘द्विज’ हुए हैं मेज़बाँ पहाड़’
यहाँ प्रसंगवश हिमाचल के ख्याति प्राप्त शायर एवं ग़ज़लकार डा. शबाब ललित (शिमला) का एक शेर याद आ रहा है,जिसमें उन्होंने बर्फ़ से ढकी पहाड़ियों का चित्रण कुछ इस प्रकार किया है:
‘तेरा पत्थर-सा दिल भी पिघल जाएगा
प्यार की आँच इन बर्फ़ज़ारों में है’
इसी प्रकार का उनका एक अन्य शेर भी है-
‘रास हम परदेसियों को आ गई
पर्वतों की सर्द बर्फ़ीली हवा’
‘द्विज’ की ग़ज़लों में जहाँ भी हिन्दी-उर्दू शब्दों का मिश्रण हुआ है, समुचित अनुपात में हुआ है,जैसे—
‘फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदंडों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते’
‘अंगद’ यहाँ पौराणिक मिथक के रूप में शेर को और भी अर्थपूर्ण एवं व्यापक बना देता है,साथ ही यह अपनी संस्कृति से जुड़ने का परिचायक भी है।
‘द्विज’ ने् ग़ज़लों नए-नए शब्द और अर्थ देने का भी अच्छा प्रयास किया है:
‘रोज़ कितने ही उजालों का दहन होता है
लोग कहते हैं यहाँ रोज़ हवन होता है’
‘रहे न व्यर्थ ही चुप ठूँठ बूढ़े पेड़ों के
सुलग उठे वही दावानलों की भाषा में’
‘जो लड़ें जीवन की सब संभावनाओं के ख़िलाफ़
हम हमेशा ही रहे उन भूमिकाओं के खिलाफ़’
‘आदमी से आदमी दीपक से दीपक दूर हों
आजकी ग़ज़लें हैं ऐसी वर्जनाओं के ख़िलाफ़’
‘पृष्ठ तो इतिहास के जन-जन को दिखलाए गए
ख़ास जो संदर्भ थे केवल वो झुठलाए गए’
‘द्विज’ के कुछ बहुत ही मार्मिक शेर ये भी:
‘सूरज का एहतराम किया उसने उम्र भर
जिसका कहीं भी धूप की बस्ती में घर न था’
‘अभागे लोग हैं कितने इसी संपन्न बस्ती में
अभावों के जिन्हें हरपल भयानक साँप डसते हैं’
मंदिर् और मस्जिद के झगड़ों पर करारी चोट करते हुए ‘द्विज’ कहते हैं:
“तुम्हारे ख़्बाब की जन्नत में मंदिर और मस्जिद हैं
हमारे ख़्वाब में ‘द्विज’ सिर्फ़ रोटी —दाल बसते हैं’
‘द्विज’ की ग़ज़लों की भाषा गंगा-जमुनी है, वे दोनों ही भाषाओं को समान सम्मान देते हैं,उन्होंने अपनी ग़ज़लो में जहाँ उर्दू बहरों का प्रयोग किया है ,वहीं कुछ ग़ज़लें ऐसी भी हैं जो हिन्दी छंदों में कही गई हैं। जैसे:
‘जीवन के हर मोड़ पर अब तो संदेहों का साया है
नफ़रत की तहज़ीब ने अपना रंग अजब दिखलाया है
ये पंक्तियाँ राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त की निम्न्लिखित पंक्तियों की तर्ज़ पर हैं:
‘चारू चंद्र की चंचल किरणें ,खेल रही हैं जल-थल में
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अंबर तल में’
(मात्रिक समछंद ताटंक/लानवी,प्रति चरण सोलह: चौदह मात्राएँ। पर+अब= परब में संधि है तथा ’ने’
लघु उच्चारित हो रहा है।)
समग्र रूप में ‘द्विज’ की ग़ज़लें सुरुचिपूर्ण और समय की माँग के अनुसार हैं,पाठक उनकी ग़ज़लों को चाव से पढ़ेंगे,इसलिए कि,उनमें उन्हें भरपूर तग़ज़्ज़ुल मिलेगा। ग़ज़ल संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है। उनकी लेखनी दिन—प्रति सशक्त हो! यही हमारी मंगल कामना है।
मासिक साहित्य क्रांति—गुना (म.प्र). [अंक— दिसम्बर२००३] से साभार
द्विज भाई की गज़लें तिलमिलाहट पैदा करने वाली हैं। उनकी ग़ज़लें कथ्य के साथ उन सभी मानकों पर खरी उतरतीं हैं जो ग़ज़ल के लिये ज़रूरी माने जाते हैं। द्विज भाई दूसरों को भी ग़ज़ल लिखने को प्रोत्साहित करते रहते है।
ReplyDeleteबहुत खूब और सुन्दर गजलें। जोश, आक्रोश और सहजता सभी कुछ मन को छूती है।
ReplyDeleteबधाई!