जन-गण-मन पर नवनीत शर्मा: बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा
द्विजेंद्र द्विज के 'जन- गण -मन' से गुज़रना ऐसे अहसास से गुज़रना है जो रोज किसी भी व्यक्ति में बीत रहा होता है। हर अहसास को ग़ज़ल के हवाले करना और उसे बहुत शिद्दत के साथ निभाना द्विज के गज़ल़कार की पहली पहचान है। वह जितनी भाव और संवेदना से पगी ग़ज़लें कहते हैं, उतना ही सधा हुआ उनका शिल्प होता है।
हिंदी ग़ज़ल के साथ एक विडंबना रही है कि उसे हिंदी संसार में दुष्यंत की ग़ज़लों के आलोक में देखा गया है और उर्दू वालों के लिए यह कोई विधा ही नहीं है। यह बहस पुरातन है और चल रही है लेकिन जन- गण- मन की ग़ज़लें इस संदर्भ में भी वह पुल हैं जिस पर दोनों पक्ष दूर नहीं हैं, शर्त यह है कि इस पुल पर चलने वाला जानबूझ कर लंगड़ा कर न चले। ग़ज़ल की यह चारित्रिक विशेषता है कि उसका हर शे'र स्वच्छंद हो सकता है, मुक्त हो सकता है। द्विज के यहां खूबी यह है कि हर शे'र से द्विज की जन के लिए प्रतिबद्धता झलकती है। यह प्रतिबद्धता यूं ही नहीं आती, इसके लिए अपनी सोच के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ता है।
जन- गण- मन की ग़ज़लों में विषयानुगत साम्य उसकी खूबी बन कर उभरा है। वहां दर्द है, टीस है, हालात-ए-हाजि़रा पर तंज़ है, कहीं भावुकता है लेकिन द्विज का शायर घर से जब चलता है तो जानता है कि सफर में हर जगह सुंदर घने बरगद नहीं होते। चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझने का यह जो जज्बा है वही जन- गण- मन की ताकत है। जब भी बंद कमरों में ताज़ा हवा का इंतज़ाम करना हो, छान फटक, निर्मम पोंछा, ईमानदारी के साथ झाड़ू पहली शर्त होते हैं, और वे तमाम औजार इन ग़ज़लों में मिलते हैं। द्विज का पहाड़ से लेकर समंदर तक होना और बादलों में घिरना केवल अभिधात्मक नहीं है, यहां लक्षणा और व्यंजना का जादू भी चमत्कृत करता है। वक्रोक्ति के तीखे और नुकीले नश्तर भी इन गज़लों में पूरी धार के साथ हैं :
देख, ऐसे सवाल रहने दे
बेघरों का ख़याल रहने दे
तेरी उनकी बराबरी कैसी
तू उन्हें तंग हाल रहने दे
भूल जाएँ न तेरे बिन जीना
बस्तियों में वबाल रहने दे
ये नश्तर जन-गण-मन की ग़ज़लों की धार को तय करते हैं। यह और बात है कि अब भी ग़ज़ल का एक मुआशरा परंपरागत शैली को ढो रहा है और जन की बात करने वाली ग़ज़लों को बकौल द्विज :
' जन-गण-मन के संवादों के संकट से जो लड़ती हैं
उन ग़ज़लों को कुछ लोगों ने पागल शोर बताया है'
बताते हैं लेकिन सच यह है कि जन- गण -मन का सृजक खुली हवा के इंतज़ाम का पक्षधर है, काई को हटाने का मुरीद है, वह नहीं चाहता कि सीलन घर करे:
बंद कमरो के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियां हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम
- नवनीत शर्मा
(युवा ग़ज़लकार, कवि। एक काव्य संग्रह 'ढूंढ़ना मुझे' प्रकाशित। ग़ज़ल
संग्रह प्रकाशनाधीन। संप्रति दैनिक जागरण में वरीय समाचार संपादक)
द्विजेंद्र द्विज के 'जन- गण -मन' से गुज़रना ऐसे अहसास से गुज़रना है जो रोज किसी भी व्यक्ति में बीत रहा होता है। हर अहसास को ग़ज़ल के हवाले करना और उसे बहुत शिद्दत के साथ निभाना द्विज के गज़ल़कार की पहली पहचान है। वह जितनी भाव और संवेदना से पगी ग़ज़लें कहते हैं, उतना ही सधा हुआ उनका शिल्प होता है।
जन-गण-मन की ग़ज़लें मनोरंजन नहीं करतीं, आईना दिखाती हैं। मैं जब आईना कह रहा हूं तो इसका अर्थ शीशा नहीं है। ये ग़ज़लें कुरेदती हैं, अपने हिस्से के दाने मांगती हैं, जंगलों की भाषा में कटने वालों का चंबलों की भाषा में उगना दर्ज करती हैं, फैसलों की भाषा की मांग करती हैं। दरअस्ल द्विज का मुहावरा जन से उठता है और जन की फेरी लगा कर अपने साथ कई कुछ ऐसा ले आता है जो जन को समर्पित हो जाता है।
जन- गण- मन की ग़ज़लों का मुहावरा किसी पुराने मील पत्थर पर नई स्याही का मुहावरा नहीं है, यह नए मील पत्थर का मुहावरा है जहां जिंदगी कमी़ज के उस टूटे हुए बटन के तौर पर दर्ज हो जाती है जिसे टांकने में उंगलियां
बिंधती हैं। जन- गण- मन की ग़ज़लों का मुहावरा किसी पुराने मील पत्थर पर नई स्याही का मुहावरा नहीं है, यह नए मील पत्थर का मुहावरा है जहां जिंदगी कमी़ज के उस टूटे हुए बटन के तौर पर दर्ज हो जाती है जिसे टांकने में उंगलियां
हिंदी ग़ज़ल के साथ एक विडंबना रही है कि उसे हिंदी संसार में दुष्यंत की ग़ज़लों के आलोक में देखा गया है और उर्दू वालों के लिए यह कोई विधा ही नहीं है। यह बहस पुरातन है और चल रही है लेकिन जन- गण- मन की ग़ज़लें इस संदर्भ में भी वह पुल हैं जिस पर दोनों पक्ष दूर नहीं हैं, शर्त यह है कि इस पुल पर चलने वाला जानबूझ कर लंगड़ा कर न चले। ग़ज़ल की यह चारित्रिक विशेषता है कि उसका हर शे'र स्वच्छंद हो सकता है, मुक्त हो सकता है। द्विज के यहां खूबी यह है कि हर शे'र से द्विज की जन के लिए प्रतिबद्धता झलकती है। यह प्रतिबद्धता यूं ही नहीं आती, इसके लिए अपनी सोच के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ता है।
जन- गण- मन की ग़ज़लों में विषयानुगत साम्य उसकी खूबी बन कर उभरा है। वहां दर्द है, टीस है, हालात-ए-हाजि़रा पर तंज़ है, कहीं भावुकता है लेकिन द्विज का शायर घर से जब चलता है तो जानता है कि सफर में हर जगह सुंदर घने बरगद नहीं होते। चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझने का यह जो जज्बा है वही जन- गण- मन की ताकत है। जब भी बंद कमरों में ताज़ा हवा का इंतज़ाम करना हो, छान फटक, निर्मम पोंछा, ईमानदारी के साथ झाड़ू पहली शर्त होते हैं, और वे तमाम औजार इन ग़ज़लों में मिलते हैं। द्विज का पहाड़ से लेकर समंदर तक होना और बादलों में घिरना केवल अभिधात्मक नहीं है, यहां लक्षणा और व्यंजना का जादू भी चमत्कृत करता है। वक्रोक्ति के तीखे और नुकीले नश्तर भी इन गज़लों में पूरी धार के साथ हैं :
देख, ऐसे सवाल रहने दे
बेघरों का ख़याल रहने दे
तेरी उनकी बराबरी कैसी
तू उन्हें तंग हाल रहने दे
भूल जाएँ न तेरे बिन जीना
बस्तियों में वबाल रहने दे
ये नश्तर जन-गण-मन की ग़ज़लों की धार को तय करते हैं। यह और बात है कि अब भी ग़ज़ल का एक मुआशरा परंपरागत शैली को ढो रहा है और जन की बात करने वाली ग़ज़लों को बकौल द्विज :
' जन-गण-मन के संवादों के संकट से जो लड़ती हैं
उन ग़ज़लों को कुछ लोगों ने पागल शोर बताया है'
बताते हैं लेकिन सच यह है कि जन- गण -मन का सृजक खुली हवा के इंतज़ाम का पक्षधर है, काई को हटाने का मुरीद है, वह नहीं चाहता कि सीलन घर करे:
बंद कमरो के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियां हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम
- नवनीत शर्मा
(युवा ग़ज़लकार, कवि। एक काव्य संग्रह 'ढूंढ़ना मुझे' प्रकाशित। ग़ज़ल
संग्रह प्रकाशनाधीन। संप्रति दैनिक जागरण में वरीय समाचार संपादक)