आदरणीय व प्रिय मित्रो!
बहुत दिनों से नई पोस्ट नहीं लगा पाया था.
संकलन जन-गण-मन की दूसरी ग़ज़ल प्रस्तुत है.
अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने-आप में सरहद नहीं होते
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते
तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी भला कब तक
वहाँ पर भी बसेरे हैं जहाँ गुंबद नहीं होते
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नहीं होते
सादर
द्विजेन्द्र द्विज