Wednesday, May 26, 2010

द्विजेन्द्र द्विज के ‘जन-गण-मन’ पर प्रसिद्ध समालोचक कैलाश कौशल की समीक्षा

जन के मन की बेहतरी में ग़ज़ल

हिन्दी ग़ज़ल में द्विजेन्द्र ‘द्विज’ का अपना एक ख़ास मुक़ाम है। उनके ग़ज़ल संग्रह `जन-गण –मन’ में 56 ग़ज़लें संकलित हैं। जन के मन से जुड़ी इन ग़ज़लों में ‘द्विज’ ने जीवन , समाज और संस्कृति और समय के यथार्थ से बिंधे अनेक पहलू उद्घाटित किए हैं।

विगत तेइस वर्षों से हमीरपुर,पालमपुर,धर्मशाला में निवास करते हुए द्विज की ग़ज़लों में देशज संवेदना का गहरा असर है। इस संग्रह का आग़ाज़ करने वाली ग़ज़ल में पहाड़ों की आंचलिक ऊष्मा कुछ इस प्रकार व्यक्त हुई है:

ख़ुद तो ग़मों के ही रहे हैं आसमाँ पहाड़
लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़

पत्थर-सलेट में लुटा के अस्थियाँ तमाम
मानो दधीचि-से खड़े हों जिस्मो-जाँ पहाड़ (पृ.11)

इस संग्रह में व्यक्त उनका ‘पहाड़’ हिमाचल तक ही सीमित नहीं है, मज़हब,रंग,और सियासत की रुकावटों के विरुद्ध भी अपनी आवाज़ बुलंद करता है:

ज़बान ,ज़ात या मज़हब जहाँ न टकराएँ
हमें हुज़ूर वो हिन्दोस्तान दीजिएगा(पृ.18)

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की इन ग़ज़लों में बहुत नपे तुले शब्दों में अपने समय की बृहत्तर चिंताओं को लोकतांत्रिक सोच से साझा करते हुए आवाज़ दी गई है, आज के हालात और व्यवस्था से सर्वाधिक पीड़ित और प्रताड़ित जन का मन यहाँ सघन प्रभाव के साथ व्यक्त हुआ है:

ढाँपे हैं हमने पैर तो नंगे हुए है‍ सर
या पैर नंगे हो गए सर ढाँपते हुए

है ज़ि‍दगी कमीज़ का टूटा हुआ बटन
बिंधती हैं उंगलियाँ भी जिसे टाँकते हुए

ठेट हिन्दोस्तानी की ज़िन्दगी के ठाठ को बयाँ करने वाली ये ग़ज़लें आज़ाद भारत के पिछले छ: दशकों की तस्वीर सामने प्रस्तुत कर देती हैं और बताती है‍ कि स्वार्थों की राजनीति के चलते आप आदमी निरंतर त्रस्त और पस्त होता गया है। देश-काल के व्यापक संदर्भों को इन छोटी-छोटी ग़ज़लों में बड़े हुनर के साथ पिरोया गया है:

ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ
यह सदी पत्थर-सी है संवेदनाओं के ख़िलाफ़

सामने हालात की लाएँ जो काली सूरतें
हैं कई अख़बार भी उन सूचनाओं के ख़िलाफ़ (पृ. 44)
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फ़स्ल बेशक आप सारी अपने घर ले जाइए
चंद दाने मेरे हिस्से के मुझे दे जाइए (पृ.41)
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इन ग़ज़लों मे‍ बिना किसी आवेश या आयोजन भंगिमा के उन तमाम शोषित-उपेक्षित लोगों की की जीवन-दशा और अनुभव संसार को अपनेपन के साथ समेटा गया है और यह भी कि यह हमे‍ अपने शहर से रूबरू होने का अहसास दिलाता है:

जो सूरज हर जगह सुंदर-सुनहरी धूप देता है
वो सूरज क्यों हमारे शहर में अक्सर नहीं आता (पृ.40)

अपने संयत स्वर और सहज मुहावरे वाली सादगी से अनुप्राणित ये ग़ज़लें आजके दौर की मौजूदा व्यवस्था पर व्यंग्य करती हैं:

हुई हैं मुद्दतें आंगन में वो नहीं उतरी
यों धूप रोज़ ठहरती है सायबानों में

जगह कोई जहाँ सर हम छुपा सकें अपना
अभी भी ढूँढते फिरते हैं संविधानों में (पृ.56)

ग़ज़लकार की चिंता यही है कि :

है आज भी वहीं का वहीं आम आदमी
किस बात पर मुखर है ये संसद न पूछिए

ये ग़ज़लें प्रतिरोध के स्वभव को शक्ति -संपन्न करती हैं असुर विकलांग विकास की कलई खोलती हैं।
ग़ज़लकार की चाह भी यही है:

हो परिवर्तन
बदलें आसन

क्योंकि:

मन ख़ाली हैं
लब जन-गण-(पृ.70-71)

प्रसिद्ध कथाकार और ग़ज़लकार ज्ञानप्रकाश विवेक इस संग्रह के विषय में‍ लिखते हैं कि "ये ग़ज़लें हमारे समय की नुमाया आवाज़ हैं। संग्रह की ग़ज़लें हार्दिकता के साथ मानवीय पक्ष प्रस्तुत करते हुए, मनुष्य और उसकी गरिमा की पैरवी करती हैं...जिन्हें ‘द्विज’ जैसे दयानतदार शायर ने अपनी संपूर्ण चेतना के साथ रचा है। "

द्विज की ग़ज़लें क्लेवर में छोटी हैं पर अपने भाव संवेदन,अर्थ-परिधि और व्यंजना में गहरा असर छोड़ती हैं। सीधे मर्म तक पहुँचने वाली ये ग़ज़लें धुंध में लिपटे समय की सच्चाइयों से साक्षात्कार कराती हैं। सामान्य जन के भीतर के भाव लोक और उसके साथ होने वाली नाइंसाफ़ियों सौर बुरे बरतावों तथा समय की विद्रूपताओं को व्यंजित करती हुई ये ग़ज़लें बेबाक और पुरासर अंदाज़ में अपनी बात कहती हैं।
भाषाई स्तर पर द्विजेन्द्र ‘द्विज’ को ‘दुष्यन्त-कुल’ का ग़ज़लकार कहा जाता है। जो हिन्दी और उर्दू के बीच संतुलन कायम करते हुए सादगी और सहजता को अपनी बानगी बना लेते हैं। उनके संवेदनात्मक उद्देश्य में निहित ईमानदारी और बयान की साफ़गोई भीतर तक वह चोट करती है जिसे पा कर पाठक को सुकून मिलता है। संग्रह की भूमिका में ख्यातनाम ग़ज़लगो ज़हीर कुरैशी उनकी ग़ज़लों को हिन्दोस्तानी ठाठ की ग़ज़लें बताते हुए कहते है: ‘द्विजेन्द्र ‘द्विज’ की ग़ज़लों में एक विशेष किस्म की आंतरिकता,समझ , सलाहियत सूक्षम्ता और सघनता को महसूस किया जा सकता है।... कुल मिलाकर उनकी ग़ज़लें प्रगतिशील और जनवादी चेतना से लैस जागरूक ग़ज़लें हैं जो कोम्पलों की शैली में पल्लवित होती हैं। (पृ.9)
वस्तुत: द्विजेन्द्र द्विज उन ग़ज़लकारों में से हैं जिनके अन्दर बाहर की घटनाओं के कारण
निरंतर कुछ घटता रहता है और जिसे वे अपने साथ अपने शे’रों के माध्यम से तुरंत बाँटना चाहते हैं:

जुड़ेंगी सीधे कहीं ज़िंदगी से ये जाकर
भले ही ख़ुश्क हैं ग़ज़लें ये गुनगुनाने में

ग़ज़ल में शे’र ही कहना है ‘द्विज’, हुनरमंदी
नया तो कुछ भी नहीं क़ाफ़िए उठाने में (पृ.67)

ये ग़ज़लें अपनी संप्रेषणीयता में सहज किन्तु असाधारण, असरदार और अपने ‘समय की पागल हवाओं के ख़िलाफ़’ नई इबारत लिखती हैं:

आख़िरी पत्ते ने बेशक चूम ली आख़िर ज़मीन
पर लड़ा वो शान से पागल हवाओं के ख़िलाफ़

साभार : डा. कौशल नाथ उपाध्याय के संपादन में जोधपुर से प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका ‘शब्द-सेतु’ (अक्टूबर-नवंबर-2008)