Monday, August 22, 2016

जन-गण-मन पर नवनीत शर्मा: बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा


द्विजेंद्र द्विज के 'जन- गण -मन' से गुज़रना ऐसे अहसास से गुज़रना है जो रोज किसी भी व्‍यक्ति में बीत रहा होता है। हर अहसास को ग़ज़ल के हवाले करना और उसे बहुत शिद्दत के साथ निभाना द्विज के गज़ल़कार की पहली पहचान है। वह जितनी भाव और संवेदना से पगी ग़ज़लें कहते हैं, उतना ही सधा हुआ उनका शिल्‍प होता है।

 जन-गण-मन की ग़ज़लें मनोरंजन नहीं करतीं, आईना दिखाती हैं। मैं जब आईना कह रहा हूं तो इसका अर्थ शीशा नहीं है। ये ग़ज़लें कुरेदती हैं, अपने हिस्‍से के दाने मांगती हैं, जंगलों की भाषा में कटने वालों का चंबलों की भाषा में उगना दर्ज करती हैं, फैसलों की भाषा की मांग करती हैं। दरअस्‍ल द्विज का मुहावरा जन से उठता है और जन की फेरी लगा कर अपने साथ कई कुछ ऐसा ले आता है जो जन को समर्पित हो जाता है।

 जन- गण- मन  की ग़ज़लों का मुहावरा किसी पुराने मील पत्‍थर पर नई स्‍याही का मुहावरा नहीं है, यह नए मील पत्‍थर का मुहावरा है जहां जिंदगी कमी़ज के उस टूटे हुए बटन के तौर पर दर्ज हो जाती है जिसे टांकने में उंगलियां
बिंधती हैं।


हिंदी ग़ज़ल के साथ एक विडंबना रही है कि उसे हिंदी संसार में दुष्‍यंत की ग़ज़लों के आलोक में देखा गया है और उर्दू वालों के लिए यह कोई विधा ही नहीं है। यह बहस पुरातन है और चल रही है लेकिन जन- गण- मन की ग़ज़लें इस संदर्भ में भी वह पुल हैं जिस पर दोनों पक्ष दूर नहीं हैं, शर्त यह है कि इस पुल पर चलने वाला जानबूझ कर लंगड़ा कर न चले। ग़ज़ल की यह चारित्रिक विशेषता है कि उसका हर शे'र स्‍वच्‍छंद हो सकता है, मुक्‍त हो सकता है। द्विज के यहां खूबी यह है कि हर शे'र से द्विज की जन के लिए प्रतिबद्धता झलकती है। यह प्रतिबद्धता यूं ही नहीं आती, इसके लिए अपनी सोच के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ता है।


जन- गण- मन की ग़ज़लों में विषयानुगत साम्‍य उसकी खूबी बन कर उभरा है। वहां दर्द है, टीस है, हालात-ए-‍हाजि़रा पर तंज़ है, कहीं भावुकता है लेकिन द्विज का शायर घर से जब चलता है तो जानता है कि सफर में हर जगह सुंदर घने बरगद नहीं होते। चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझने का यह जो जज्‍बा है वही जन- गण- मन की ताकत है। जब भी बंद कमरों में ताज़ा हवा का इंतज़ाम करना हो, छान फटक, निर्मम पोंछा, ईमानदारी के साथ झाड़ू पहली शर्त होते हैं, और वे तमाम औजार इन ग़ज़लों में मिलते हैं। द्विज का पहाड़ से लेकर समंदर तक होना और बादलों में घिरना केवल अभिधात्‍मक नहीं है, यहां लक्षणा और व्‍यंजना का जादू भी चमत्‍कृत करता है। वक्रोक्ति के तीखे और नुकीले नश्‍तर भी इन गज़लों में पूरी धार के साथ हैं :


देख, ऐसे सवाल रहने दे
बेघरों का ख़याल रहने दे

तेरी उनकी बराबरी कैसी
तू उन्हें तंग हाल रहने दे

भूल जाएँ न तेरे बिन जीना
बस्तियों में वबाल रहने दे

ये नश्‍तर जन-गण-मन की ग़ज़लों की धार को तय करते हैं। यह और बात है कि अब भी ग़ज़ल का एक मुआशरा परंपरागत शैली को ढो रहा है और जन की बात करने वाली ग़ज़लों को बकौल द्विज :

' जन-गण-मन के संवादों के संकट से जो लड़ती हैं
उन ग़ज़लों को कुछ लोगों ने पागल शोर बताया है'

बताते हैं लेकिन सच यह है कि जन- गण -मन का सृजक खुली हवा के इंतज़ाम का पक्षधर है, काई को हटाने का मुरीद है, वह नहीं चाहता कि सीलन घर करे:

बंद कमरो के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियां हों हर तरफ़ ऐसी दुआ लिखते हैं हम



- नवनीत शर्मा

(युवा ग़ज़लकार, कवि। एक काव्‍य संग्रह 'ढूंढ़ना मुझे' प्रकाशित। ग़ज़ल
संग्रह प्रकाशनाधीन। संप्रति दैनिक जागरण में वरीय समाचार संपादक)

Friday, August 19, 2016

101 किताबें शायरी की ...में 'जन-गण-मन' पर प्रख्यात ग़ज़लकार व समीक्षक श्री नीरज गोस्वामी का आलेख


101 किताबें शायरी की ...में 'जन-गण-मन' पर प्रख्यात ग़ज़लकार व समीक्षक श्री नीरज गोस्वामी



भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार...ये शब्द आजकल हर तरफ गूँज रहा है...सदियों से सहते आ रहे भ्रष्टाचार से अचानक लोग मुक्ति पाने के लिए तड़प रहे हैं...नारे लगा रहे हैं, अनशन कर रहे हैं, मुठ्ठियाँ हवा में लहरा रहे हैं...और भ्रष्टाचार है के वहीँ का वहीँ अपनी मजबूत स्तिथि का फायदा उठाते हुए मंद मंद मुस्कुरा रहा है. क्यूँ? जवाब के लिए मुंबई से प्रकाशित साहित्य पत्रिका "कथा बिम्ब" के ताज़ा अंक में "श्री घनश्याम अग्रवाल" जी की ये कविता पढ़ें:
"बेताल के सवाल पर 
विक्रम से लेकर अन्ना तक 
सभी मौन हैं
कि जब सारा देश
भ्रष्टाचार के खिलाफ है 
तब साला भ्रष्टाचार करता कौन है?"
सीधी सी बात है भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले हम लोग ही भ्रष्टाचार को फ़ैलाने में सहयोग देते हैं.इसी बात को उस शायर ने जिसकी किताब का जिक्र हम करने जा रहे हैं किस खूबसूरत अंदाज़ में कहा है पढ़िए :
ये चाँद ख़ुद भी तो सूरज के दम से काइम हैं 
ये ख़ुद के बल पे कभी चांदनी नहीं देते
गज़ब के तेवर लिए इस छोटी सी प्यारी सी शायरी की किताब " जन गण मन " के लेखक हैं ब्लॉग जगत के अति प्रिय, स्थापित युवा शायर जनाब "द्विजेन्द्र द्विज" साहब. द्विजेन्द्र जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं ,ब्लॉग जगत के ग़ज़ल प्रेमी इस नाम से बखूबी परिचित हैं. ब्लॉग पर उनकी सक्रियता अधिक नहीं रहती लेकिन वो जब भी अपनी ग़ज़लों से रूबरू होने का मौका देते हैं अपने पाठकों को चौंका देते हैं.
अँधेरे चंद लोगों का अगर मकसद नहीं होते 
यहां के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

फरेबों की कहानी है तुम्हारे मापदंडों में
          वगरना हर जगह 'बौने' कभी 'अंगद' नहीं होते

चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा 
सफ़र में हर जगह सुन्दर घने बरगद नहीं होते
बौनों के अंगद होने की बात कहने वाला शायर किस कोटि का होगा ये पता लगाना कोई मुश्किल काम नहीं है. ऐसी सोच और ऐसे अशआर यक़ीनन शायर के अन्दर धड़कते गुस्से के लावे को बाहर लाते हैं. द्विज जी की बेहतरीन ग़ज़लें रिवायती ग़ज़लों की श्रेणी में नहीं आतीं, उनकी ग़ज़लों में महबूबा के हुस्न और उसकी अदाओं में घिरे इंसान का चित्रण नहीं है उनकी ग़ज़लों में आम इंसान की हताशा, दुखी जन के प्रति संवेदनाएं और समाज के सड़े गले नियमों के खिलाफ गुस्सा झलकता है. द्विज जी अपनी ग़ज़लों से आपको झकझोर कर जगाते हैं:
अगर इस देश में ही देश के दुश्मन नहीं होते
           लुटेरा ले के बाहर से कभी लश्कर नहीं आता
जो खुद को बेचने की फितरतें हावी नहीं होतीं
हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता
अगर जुल्मों से लड़ने की कोई कोशिश रही होती 
हमारे दर पे जुल्मों का कोई मंज़र नहीं आता
10 अक्तूबर,1962. को जन्में द्विज जी, बेहतरीन ग़ज़ल कहने की उस पारिवारिक परम्परा का निर्वाह कर रहे हैं जिसकी नींव उनके स्वर्गीय पिता श्री "सागर पालमपुरी" जी ने डाली थी. श्री ‘सागर पालमपुरी’ जी का नाम आज भी हिमाचल के साहित्यिक हलकों बहुत आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है. कालेज के दिनों से ही वो अपने पिता के सानिध्य में ऐसी ग़ज़लें कहने लगे जिसे सुन कर उस्ताद शायर भी दंग हो जाया करते थे. तारीफों की हवा से अक्सर इंसान गुब्बारे की तरह अपनी ज़मीन को छोड़ कर ऊपर उड़ने लगते हैं और एक दिन अचानक धरातल पर आ गिरते हैं, लेकिन द्विज जी के साथ ऐसा नहीं हुआ. प्रशंसा की सीढियों से उन्होंने नयी ऊँचाइयाँ छूने की कोशिशें की:
कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में 
उगे हैं फिर वही तो चम्बलों की भाषा में
सवाल ज़िन्दगी के टालना नहीं अच्छा 
दो टूक बात करो, फ़ैसलों की भाषा में 
फ़रिश्ता है कहीं अब भी जो बात करता है 
कड़कती धूप तले, पीपलों की भाषा में
           हज़ार दर्द सहो, लाख सख्तियां झेलो
         भरो न आह मगर, घायलों की भाषा में

द्विज जी चूँकि हिमाचल से हैं इसलिए उनकी ग़ज़लों में पहाड़ नदियाँ बादल झरने रूमानी अंदाज़ में नहीं बल्कि ज़िन्दगी की हकीकत बन कर कर उभरे हैं. इस संग्रह की संक्षिप्त सी भूमिका में मशहूर ग़ज़ल कार जनाब 'ज़हीर कुरैशी' जी ने क्या खूब लिखा है के " द्विज जी की ग़ज़लों में व्यक्त उनका पहाड़ हिमाचल तक सीमित नहीं है. जाति मज़हब रंग नस्लों और फिरकापरस्ती की सियासत के खिलाफ भी उनका ग़ज़लकार तन कर खड़ा है. पहाड़ की कठिन ज़िन्दगी में खून-पसीने से सींचे गए खेतों की उपज का बंटवारा ठीक-ठाक होने की चेतावनी भी उनके शेरों में है." आप खुद पढ़ें:
बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियाँ हो हर तरफ ऐसी दुआ लिखते हैं हम
आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
          ऐसी साजिश के लिए हर बद्दुआ लिखते हैं हम

रौशनी का नाम दे कर आपने बाँटे हैं जो
उन अंधेरों को कुचलता हौसला लिखते हैं हम
अँग्रेज़ी साहित्य में सनातकोत्तर डिग्री प्राप्त द्विज जी राजकीय पॉलीटेक्निक, सुन्दर नगर , जिला मंडी में विभागाध्यक्ष अनुप्रयुक्त विज्ञान एवं मानविकी के पद पर कार्य रत हैं , ग़ज़ल लेखन उनका शौक भी है और समाज में हो रही असंगतियों को देख मन के अन्दर उठते लावे को बाहर लाने का ज़रिया भी. उनकी ग़ज़लें आपसे दार्शनिक अंदाज़ में बातें नहीं करती बल्कि सीधे सपाट शब्दों में अपनी बात कहती हैं और अपना पक्ष प्रस्तुत करती हैं:
आपके अंदाज़, हमसे पूछिए तो मोम हैं
          अपनी सुविधा के सभी सांचों में ढल जाते हैं आप

कुश्तियां, खेलों के चस्के आपके भी खूब हैं
          शेर बकरी को पटकता है बहल जाते हैं आप

सिद्धियाँ मिलने पे जैसे मन्त्र साधक मस्त हों
           शहर में होते हैं दंगे, फूल फल जाते हैं आप

"जन-गण-मन" गागर में सागर को चरितार्थ करती हुई छोटी सी किताब है जिसमें द्विज जी की लगभग साठ ग़ज़लें संगृहीत हैं. इसे आप श्री सतपाल ख्याल जी के ब्लॉग "आज की ग़ज़ल" या फिर स्वयं द्विज जी के ब्लॉग "द्विजेन्द्र ‘द्विज’" पर आन लाइन भी पढ़ सकते हैं. लेकिन साहब आन लाइन पढने में वो मज़ा नहीं आता जो मज़ा किताब को हाथ में उठाकर पढने में आता है. हालाँकि इस किताब को 'दुष्यंत-देवांश-प्रकाशन, अशोक लॉज, मारण्डा, हिमाचल प्रदेश द्वारा प्रकाशित किया गया है लेकिन इसे प्राप्त करने का आसान तरीका है द्विज जी को इस संग्रह के लिए उनके मोबाइल +919418465008 पर बात कर बधाई देते हुए उनसे किताब की प्राप्ति के लिए आग्रह करना। मेरा सौभाग्य है के मैं पिछले पांच सालों से उनसे संपर्क में हूँ .ये संपर्क अभी तक आभासी है याने सिर्फ मोबाइल पर ही उनसे बात होती है लेकिन मुझे उनसे बात करके कभी लगा ही नहीं कि मैं इनसे अभी तक नहीं मिला हूँ. मैंने ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में उनसे बहुत कुछ सीखा है और सीख रहा हूँ. इस क्षेत्र में आदरणीय पंकज सुबीर जी और प्राण साहब के साथ साथ वो भी मेरे गुरु हैं. अपनी सोच में एकदम स्पष्ट और जीवन के प्रति सकारात्मक विचार रखने वाले इस शख्श की प्रशंशा के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं. मैं दुआ करता हूँ के वो इसी तरह अपनी शायरी से हमें हमारे जीवन में फैले अंधियारों से लड़ने की ताकत देते रहें:
रास्तों पर 'ठीक शब्दों' के 
 दनदनाती ' वर्जनाएं ' हैं
          मूक जब 'संवेदनाएं' हैं
           सामने 'संभावनाएं' हैं 

          आदमी के रक्त में पलतीं 
          आज भी 'आदिम-प्रथाएं' हैं

             ये मनोरंजन नहीं करतीं
           क्यूंकि ये ग़ज़लें 'व्यथाएं' हैं